शीर्षक का नाम : “कण – कण का अधिकारी” है।
कवि का नाम : “डॉ. रामधारी सिंह दिनकर” है। प्रस्तुत कविता में भीष्म पितामह, कुरुक्षेत्र युद्ध से विचलित धर्मराज को कार्यरत होने के लिए उपदेश देते हुए कहते हैं –
- हे धर्मराज ! एक मनुष्य पाप के बल से धन इकट्ठा करता है।
- दूसरा उसे भाग्यवाद के छल से भोगता है।
- मानव समाज का एक मात्र आधार या भाग्य “श्रम और भुजबल” है।
- श्रमिक के समाने पृथ्वी और आकाश दोनों झुक जाते हैं।
- जो परिश्रम करता है, उसे सुखों से कभी वंचित नहीं करना चाहिए।
- जो पसीना बहाकर श्रम करता है, उसी को पहले सुख पाने का अधिकार है।
- प्रकृति में जो भी वस्तु है, वह मानव मात्र की संपत्ति है।
- प्रकृति के कण-कण का अधिकारी जन – जन हैं।