प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था
प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था के विविध स्वरूप थे, जिनका विवरण निम्नलिखित है
प्राचीन काल में प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था
प्राचीन काल में भारतीय शिक्षा प्रणाली ब्राह्मणों के अधिकार में थी, परन्तु प्राथमिक शिक्षा इनके आधिपत्य से मुक्त थी। प्राथमिक शिक्षा की अवधि 6 वर्ष की थी तथा 5-11 वर्ष के आयु-वर्ग वाले बालक प्राथमिक स्तर की शिक्षा ग्रहण करते थे। प्राथमिक शिक्षा स्तर पर बालकों को वैदिक मन्त्रोच्चारण सिखाया एवं कंठस्थ कराया जाता था। गुरुकुलों में पढ़ने वाले छात्रों को अन्तेवासी कहा जाता था। गुरु तथा शिष्य के बीच सम्बन्ध मधुर एवं पिता-पुत्र खुल्य थे। प्राथमिक शिक्षा मौखिक ही थी।
प्राचीन काल में उच्च शिक्षा व्यवस्था
प्राचीन भारत में उच्च शिक्षा को विशिष्ट शिक्षा के रूप में जाना जाता था। उच्च शिक्षा व्यवस्था में वेदों का विस्तृत अध्ययन किया जाता था। पाठ्यक्रम में परा तथा अपरा नामक दो विधाएँ थीं। परा विधा में वेद, वेदांत, पुराण, उपनिषद् तथा आध्यात्म विषयों की शिक्षा दी जाती थी। अपरा विधा में भूगर्भशास्त्र, तर्कशास्त्र, इतिहास एवं भौतिकशास्त्र की शिक्षा दी जाती थी। शिक्षा का प्रमुख केन्द्र तक्षशिला एवं पाटलिपुत्र थे। उच्च शिक्षा प्रदान करने के लिए व्याख्यान, प्रवचन शास्त्रार्थ, प्रश्नोत्तर तथा वाद-विवाद जैसी शिक्षण पद्धति को भी अपनाया जाता है।
प्राचीन काल में स्त्री शिक्षा
वैदिक काल में स्त्री शिक्षा प्रतिबन्धित नहीं थी, परन्तु बालिकाओं के लिए अलग से शिक्षण संस्थान नहीं थे। बालिकाएँ अपने पिता-भाई या कुल पुरोहित से शिक्षा प्राप्त करती थी।
प्राचीन काल में उच्च शिक्षा प्राप्त स्त्रियों को ब्रह्मवादिनी कहा जाता था। इस काल में गार्गी, शकुन्तला, अनुसूया, अपाला,घोषा, मैत्रेयी आदि भारतीय विदुषी स्त्रियाँ थीं।
प्राचीन काल में व्यावसायिक शिक्षा व्यवस्था
प्राचीन शिक्षा आध्यात्मिक थी, परन्तु इसके साथ ही छात्रों को विशेषकर वैश्य वर्ग के छात्रों को व्यावसायिक शिक्षा प्रदान की जाती रही। व्यावसायिक शिक्षा के अन्तर्गत निम्नलिखित विषयों की शिक्षा दी जाती थी
⦁ वाणिज्य शिक्षा वैश्य वर्ण के छात्रों को प्रदान की जाती थी। वाणिज्य शिक्षा में व्यापार, कृषि तथा पशुपालन प्रमुख थे।
⦁ सैन्य शिक्षा विशेषकर क्षत्रिय वर्ग के छात्रों को प्रदान की जाती थी। इसमें अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान
व परिचालन, व्यूह-रचना का प्रयोगात्मक रूप प्रदान किया जाता था।
⦁ कला कौशल की शिक्षा के अन्तर्गत संगीत कला, चित्रकला, शिल्पकला आदि की शिक्षा प्रदान
की जाती थी, परन्तु यह शिक्षा संस्थागत न होकर मार्गदर्शन के रूप में होती थी।
⦁ चिकित्साशास्त्र की शिक्षा ऐसे योग्य छात्रों को दी जाती थी, जिनमें सेवाभाव एवं मानवीय गुण थे। इस विषय में रोग-निदान, औषधिशास्त्र तथा शल्य क्रिया की शिक्षा प्रदान की जाती थी।
प्राचीन भारतीय शिक्षा संस्थाएँ।
प्राचीन काल में निम्नलिखित शिक्षण संस्थाएँ थीं-
⦁ टोल–प्राचीन काल में स्थापित, इस तरह की संस्थाओं में केवल एक शिक्षक हुआ करता था। यहाँ मुख्य रूप से संस्कृत विषय पढ़ाया जाता था। |
⦁ चारण-वेदों के अनुसार, किसी एक अंग की शिक्षा प्रदान करने वाली संस्था चारण कहलाती थी। |
⦁ घटिका-दर्शन तथा धर्म की उच्च शिक्षा प्रदान करने वाली संस्था घटिका कहलाती थी।
⦁ परिषद्-इस तरह की संस्था में 10 शिक्षक होते थे, जो विभिन्न विषयों से सम्बन्धित शिक्षा प्रदान करते थे।
⦁ गुरुकुल–गुरुकुलों में वेदों, साहित्यों तथा धर्म की शिक्षा मौखिक रूप से प्रदान की जाती थी। प्राचीन काल में छात्रों को गुरुकुल में मौखिक रूप से शिक्षा दी जाती थी। इस पद्धति में छात्रों को गुरुजन मन्त्र, वेद तथा उनके अर्थों को मौखिक रूप से रटा देते थे और इनके गूढ़ अर्थों के द्वारा ही छात्रों की समस्याओं का हल भी हो जाता था। इसके लिए गुरुकुल में शास्त्रार्थ तथा वाद-विवाद का भी प्रयोग किया जाता थी।
⦁ विद्यापीठ-व्याकरण एवं तर्कशास्त्र की व्यवस्थित शिक्षा प्रदान करने वाली शिक्षण संस्था थी।
⦁ विशिष्ट विद्यालय-इस तरह की संस्था में भी एक ही विषय की विशिष्ट शिक्षा प्रदान की जाती थी।
⦁ मन्दिर महाविद्यालय- प्राचीन काल में कुछ मन्दिर शिक्षण संस्थाओं के रूप में कार्य करते थे, जिनमें धर्म, दर्शन, वेद तथा व्याकरण आदि की शिक्षा दी जाती थी।
⦁ ब्राह्मणीय महाविद्यालय-इसे प्रकार की संस्था को चतुष्पथी भी कहा जाता था। इन विद्यालयों में दर्शन, पुराण, कानून, व्याकरण आदि विषयों की शिक्षा दी जाती थी।
⦁ विश्वविद्यालय-इस प्रकार की शिक्षण संस्थाएँ, जो विभिन्न विषयों की शिक्षा प्रदान करती हैं। विश्वविद्यालय कहलाती हैं। प्राचीनकाल में शिक्षा प्रक्रिया के विकास के लिए इस प्रकार की संस्था की स्थापना की गई।