प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा से आशय वैदिककालीन शिक्षा से है। इस काल में वैदिक संस्कृति का बोलबाला था तथा जीवन के प्रत्येक पक्ष पर उसका प्रभाव था। प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा भी वेदों से प्रभावित थी।
प्राचीन भारत की शिक्षा की अनेक महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ थीं। इस शिक्षा व्यवस्था ने भारत को ही नहीं वरन् सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशित किया। डॉ० ए०एस० अल्तेकर के अनुसार, “उस समय के विश्व में भारत का जो सर्वोच्च स्थान था, उसका कारण शिक्षा प्रणाली की सफलता थी।”
प्राचीन ( वैदिककालीन) भारतीय शिक्षा की विशेषताएँ
प्राचीन भारतीय शिक्षा-प्रणाली की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं।
1. चयनात्मकता–प्राचीन काल की शिक्षा की पहली विशेषता उसकी चयनात्मकता थी। कुछ योग्यताओं और नैतिकताओं के आधार पर ही छात्र गुरु के आश्रम में प्रवेश पा सकते थे। दूसरे शब्दों में, प्रत्येक व्यक्ति के लिए शिक्षा का द्वार नहीं खुला था। चरित्रहीन और भ्रष्ट बालकों को आश्रम में प्रवेश नहीं दिया जाता था। इस प्रकारे शिक्षा केवल सुयोग्य छात्रों के लिए होती थी।
2. विद्यारम्भ संस्कार-अल्तेकर के अनुसार, “विद्यारम्भ । प्राचीन वैदिककालीन)। संस्कार पाँच वर्ष की आयु में होता था और साधारणतया सब | भारतीय शिक्षा की विशेषताएँ जातियों के बालकों के लिए था।” अधिकांश विद्वानों के अनुसार । चयनात्मकता यह संस्कार उस समय होता था, जब बालक प्राथमिक शिक्षा विद्यारम्भ संस्कार आरम्भ करता था। इस संस्कार के समय बालक को अक्षर ज्ञान उपनयन संस्कार कराया जाता था। |
3. उपनयन संस्कार-उपनयन’ का शाब्दिक अर्थ गुरुकुल प्रणाली हैपास ले जाना’; दूसरे शब्दों में, ज्ञान-प्राप्ति के लिए छात्र का नियमित दिनचर्या का सिद्धान्त गुरु के पास पहुँचना। उपनयन के बाद बालक का नवीन जीवन पाठ्य-विषयों की व्यापकता प्रारम्भ होता था। छात्र गुरु के पास जाकर कहता था-“मैं ज्ञानार्जन दण्ड का सिद्धान्त करने और ब्रह्मचारी जीवन व्यतीत करने के लिए आपके निकट चरित्र-निर्माण का सिद्धान्त आया हूँ। मुझे ज्ञान प्रदान करें।” गुरु उपनीत बालक से प्रश्न करता * गुरु-शिष्य सम्बन्ध था-“तुम किसके ब्रह्मचारी हो?” बालक उत्तर देता छात्र जीवन सम्बन्धी नियम था—“आपका’, तत्पश्चात् गुरु गायत्री मन्त्र का उपदेश देता था और शिक्षा का प्रारम्भ करता था। 9 धर्म और लौकिकता का समावेश
4. गुरुकुल प्रणाली–प्राचीन भारी शिक्षा प्रणाली की प्रमुख विशेषता गुरुकुल प्रणाली थी। इसलिए प्राचीन भारतीय शिक्षा-प्रणाली का ‘गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली’ के नाम से भी जाना जाता है। जब बालक सात या आठ वर्ष का हो जाता था तो वह माता-पिता को छोड़कर गुरु के आश्रम में प्रवेश करता था। गुरु के आश्रम को ही गुरुकुल कहा जाता था। अपने सम्पूर्ण अध्ययन काल तक छात्र को गुरुकुल में रहकरे अध्ययन करना पड़ता था। गुरु छात्रों को न केवल शिक्षा प्रदान करता था; वेरन् संरक्षक के रूप में उनके भरण-पोषण, वेशभूषा आदि की व्यवस्था भी करता था।
5. नियमित दिनचर्या का सिद्धांत-प्राचीनकालीन भारतीय शिक्षा-व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक छात्र के लिए आवश्यक था कि वह नियमित दिनचर्या को उचित ढंग से पालन करे। प्रत्येक छात्र के लिए सूर्योदय से पूर्व उठना, स्नान करना, यज्ञ, पूजा, वेद पाठ, भिक्षा माँगना तथा गुरु की सेवा करना दिनचर्या के आवश्यक अंग थे।
6. पाठ्य-विषयों की व्यापकता–वैदिककाल में पाठ्य-विषय सीमित थे, लेकिन ब्राह्मण काल में शिक्षा के पाठ्यक्रम में अनेक विषयों का समावेश किया गया था। चारों वेदों के अतिरिक्त उपनिषद्, इतिहास, पुराण, व्याकरण, विधिशास्त्र, देवशास्त्र, भूत विद्या, एकायन, ब्रह्मविद्या आदि विषयों को अध्ययन किया जाता था।
7. दण्ड का सिद्धान्त-प्राचीन शिक्षा में मनोविज्ञान के सिद्धान्तों के अनुकूल शिक्षा प्रदान करने की प्रवृत्ति मिलती है। छात्र को शारीरिक दण्ड प्रदान करना अनुचित अपराध माना जाता था। याज्ञवल्क्य और मनु साधारण दण्ड के पक्ष में थे, परन्तु गौतम नहीं। आचार्य छात्रों की बौद्धिक क्षमता, रुचि तथा प्रवृत्ति को ध्यान में रखकर ही शिक्षा प्रदान करते थे।
8. चरित्र-निर्माण का सिद्धान्त-चरित्र-निर्माण के लिए छात्रों के स्वभाव और संस्कारों का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता था। इस सिद्धान्त के प्रतिपादन के लिए छात्रों के उचित पालन-पोषण, शिक्षा व अनुकूलन आदि परिस्थितियों की व्यवस्था की जाती थी।
9. गुरु-शिष्यसम्बन्ध–प्राचीन शिक्षा में गुरु-शिष्य के मध्य प्रत्यक्ष सम्बन्ध रहता था। शिष्य गुरु के सीधे सम्पर्क में देहता था। अतः गुरु शिष्य की शारीरिक और मानसिक शक्तियों का भली प्रकार अध्ययन कर लेता था। गुरु अपने शिष्यों के साथ पुत्रवत् स्नेह करते थे तथा उनके रहन-सहन, भोजन, वस्त्र आदि का उत्तरदायित्व उठाते थे। |
10. छात्र जीवन संम्बन्धी नियम-छात्र नियमित जीवन व्यतीत करने के साथ-साथ खान-पान, वेशभूषा व आचार-व्यवहार के नियमों का पालन भी अनिवार्य रूप से करते थे। |
11. निःशुल्क शिक्षा-प्राचीन काल में शिक्षा नि:शुल्क थी। छात्रों से किसी प्रकार का शुल्क नहीं लिया जाता था। शिक्षा की समाप्ति पर वे स्वेच्छा से अपने गुरु को दक्षिणी प्रदान करते थे।
12. धर्म और लौकिकता का समावेश-प्राचीन काल में शिक्षा धर्मप्रधान थी। छात्र निष्ठा के साथ धार्मिक अनुष्ठानों का पालन करते थे। धार्मिक शिक्षा के साथ लौकिक शिक्षा की भी व्यवस्था थी। अनेक लौकिक विषयों को भी पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया था।