मध्यकालीन शिक्षा का अर्थ भारतीय इतिहास में शैक्षिक दृष्टिकोण से मध्यकाल नितान्त भिन्न काल था। इस काल में भारत में मुख्य रूप से विदेशी मुस्लिम शासकों का शासन था। इस शासन के ही कारण भारत में एक भिन्न शिक्षा प्रणाली को लागू किया गया जो पारम्परिक भारतीय शिक्षा-प्रणाली से नितान्त भिन्न प्रकार की थी। इस शिक्षा-प्रणाली को मुस्लिम शिक्षा-प्रणाली के नाम से भी जाना जाता है। वास्तव में इस शिक्षा का मुख्य उद्देश्य इस्लाम धर्म का प्रसार एवं प्रचार करना भी था। मध्यकालीन अथवा मुस्लिम शिक्षा का सामान्य परिचय डॉ० केई ने इन शब्दों में प्रस्तुत किया है, “मुस्लिम शिक्षा एक विदेशी प्रणाली थी जिसका भारत में प्रतिरोपण किया गया और जो ब्राह्मणीय शिक्षा से अति अल्प सम्बन्ध रखकर, अपनी नवीन भूमि में विकसित हुई।”
मध्यकालीन शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ
मध्यकालीन भारतीय शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थीं–
1. शिक्षा का संरक्षण-मध्यकाल में शिक्षा-व्यवस्था राज्य के संरक्षण या नियन्त्रण में थी। मुस्लिम शासकों ने भी शिक्षा के क्षेत्र में विशेष रुचि ली थी। उनके राज्य के विभिन्न भागों में मकतबों, मदरसों एवं पुस्तकालयों की स्थापना की गई। राज्य की ओर से छात्रों को छात्रवृत्तियाँ और शिष्यवृत्तियाँ भी दी गयी। इन सब सुविधाओं के कारण इस युग में शिक्षा का पर्याप्त प्रसार हुआ।
2. शिक्षा में व्यापकता का अभाव-यद्यपि मध्यकाल में शिक्षा का प्रसार बहुत तेजी से हुआ, लेकिन उसमें व्यापकता का सर्वथा अभाव था। शिक्षा पर धार्मिक कट्टरता की छाप लगी हुई थी और शिक्षा की जो भी व्यवस्था थी, वह केवले नगरों में उच्च तथा मध्यम वर्गों के बालकों के लिए ही थी। फलतः जनसाधारण के बालकों के ज्ञानार्जन का कोई सुलभ साधन नहीं था।
3. शिक्षा के लौकिक पक्ष पर बल-मुस्लिम शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य लौकिक यश, सुख तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति माना गया था। मुसलमानों को ध्यान लौकिक जीवन की ओर अधिक आकृष्ट था। अतः मुस्लिम शिक्षा में लौकिक पक्ष पर बहुत अधिक बल दिया गया और इसमें भारतीय आध्यात्मिकता का अभाव रखा गया।
4. प्रान्तीय भाषाओं की उपेक्षा–मध्यकाल में अरबी और फारसी भाषा के माध्यम से शिक्षा दी। जाती थी। इस कारण प्रान्तीय भाषाओं की पूर्णत: उपेक्षा हो गई। उच्च पद के इच्छुक व्यक्तियों ने भी मातृभाषा की उपेक्षा करके अरबी और फारसी भाषा का अध्ययन किया।
5. निःशुल्क शिक्षा—इस काल में बालकों की शिक्षा पूर्णत: नि:शुल्क थी। विद्यार्थियों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए कोई शुल्क नहीं देना पड़ता था। उनकी पढ़ाई का पूरा व्यय धनी व्यक्तियों और शासकों को वहन करना पड़ता था।
6. परीक्षाएँ-मुस्लिम काल में आजकल के समान सार्वजनिक परीक्षाओं का प्रचार नहीं था। शिक्षक वाद-विवाद और शास्त्रार्थ के द्वारा विद्यार्थियों को एक कक्षा से दूसरी कक्षा में भेजता था।
7. उपाधियाँ-मुस्लिम काल में छात्रों की शिक्षा समाप्ति के बाद उपाधियाँ प्रदान करने की व्यवस्था थी। धर्म की शिक्षा प्राप्त करने पर आलिम’ की उपाधि, तर्कशास्त्र और दर्शनशास्त्र की शिक्षा प्राप्त करने पर फाजिल की उपाधि और साहित्य का अध्ययन करने वाले छात्र को ‘कामिल’ की उपाधि दी जाती थी।
8. गुरु-शिष्य सम्बन्ध–इस काल में भी गुरु को सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त होता था। शिष्य अपने गुरु का बहुत आदर करते थे, और गुरु अपने शिष्य को पुत्रवत् मानते थे। छात्रावासों में गुरु और शिष्य एक साथ रहते थे, जिसके फलस्वरूप दोनों में निकट सम्पर्क स्थापित रहता था।
9. अनुशासन और दण्ड–इस काल में गुरु-शिष्य सम्बन्ध । शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ मधुर होने के कारण शिक्षकों के सामने अनुशासनहीनता की समस्या न थी, लेकिन अनुशासनहीन छात्रों को बेंत, कोड़े और चूंसे मारकर शारीरिक दण्ड दिया जाता था। इनका प्रयोग करने के लिए शिक्षकों को स्वतन्त्र छोड़ दिया गया था। कठोर दण्ड का प्रावधान होने के शिक्षा के लौकिक पक्ष पर बल कारण सामान्य रूप से अनुशासनहीनता की समस्या प्रबल नहीं थी।
10. छात्रावास- मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों के लिए। छात्रावासों की व्यवस्था थी, जिनका व्यय भार धनी व्यक्ति उठाते इन छात्रावासों में शिक्षकों और विद्यार्थियों के सुख तथा आनन्द उपाधियाँ की अनेक सुविधाएँ प्रदान की जाती थीं।
11. स्त्री-शिक्षा-परदा-प्रथा के कारण इस काल में स्त्री-शिक्षा की प्रगति प्राचीनकाल की अपेक्षा कम थी। निम्न वर्ग की बालिकाओं को शिक्षा का अवसर प्राप्त नहीं होता था, जब कि धनी तथा उच्च घराने में उत्पन्न हुई बालिकाओं की शिक्षा के लिए अनेक साधन थे। छोटी आंयु में मोहल्ले की बालिकाएँ एकत्र होकर मकतब जाती थीं और लिखना-पढ़ना सीख लेती थीं। सम्पन्न परिवार की बालिकाओं को घर पर व्यक्तिगत शिक्षकों द्वारा शिक्षा दी जाती थी। कुछ स्त्रियाँ साहित्य, धर्मशास्त्र, गृहशास्त्र, संगीत इत्यादि में निपुण थीं, जिनमें नूरजहाँ, रजिया बेगम, जहाँआरा, गुलबदन बेगम आदि प्रमुख हैं।
12. व्यावसायिक शिक्षा–मध्यकाल में व्यावसायिक शिक्षा की ओर पर्याप्त ध्यान दिया गया था। जीविका उपार्जन सम्बन्धी शिक्षा के लिए मुहम्मद तुगलक ने अनेक कारखानों की स्थापना की थी, जो अकबर के समय दीवाने वयूतात के अधीन थे। इन कारखानों में चित्रकला, सुनारगिरी, वस्त्र बनाना, दरी और परदे बनाना, अस्त्र-शस्त्र बनाना, दर्जी का काम, जूते बनाना, मलमल तैयार करना आदि काम सिखाए जाते थे।
13. सैन्य शिक्षा-राज्य के सैनिकों द्वारा बालकों को सैन्य शिक्षा दी जाती थी। इसके द्वारा वे देश में अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहते थे। इस युग में सैनिक विद्यालयों की स्थापना नहीं हो पाई थी। बालकों को गोली चलाने और हाथियों पर बैठकर युद्ध करने की शिक्षा दी जाती थी। |
14. ओषधिशास्त्र की शिक्षा–मध्यकाल में ओषधिशास्त्र की शिक्षा को विशेष प्रोत्साहन दिया गया था। ओषधिशास्त्र की संस्कृत की पुस्तकों का फारसी भाषा में अनुवाद किया गया। अनेक मुस्लिम संस्थाओं में इस प्रकार की शिक्षा दी जाती थी।
15. ललित कलाओं की शिक्षा-मध्यकाल में भवन-निर्माण कला, चित्रकला, नृत्यकला और संगीत के प्रशिक्षण के लिए अनेक सुविधाएँ प्राप्त थीं। इन सभी कलाओं को राजाओं एवं अमीरों का संरक्षण प्राप्त था। शाहजहाँ भवन-निर्माण कला में विख्यात था। जहाँगीर चित्रों का पारखी था और अकबर कुशल संगीतज्ञ था।