(i) शिक्षा का उद्देश्य
1. प्राचीन काल में भारतीय समाज आदर्शवादी था जिसका मुख्य उद्देश्य ज्ञान तथा अनुभव को अर्जित करना था, जबकि इसके विपरीत मध्यकाल में भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों की निर्धारण इस्लाम धर्म की मान्यताओं के अनुसार होने के कारण ज्ञान का अधिक-से-अधिक प्रसार करना था।
2. प्राचीन काल में भारतीय समाज धर्मप्रधान था जिस कारण भारतीय शिक्षा भी धार्मिकता की और उन्मुख थी। शिक्षा का उद्देश्य छात्रों में धार्मिक प्रवृत्ति तथा ईश्वर-भक्ति को विकसित करना था। इसके विपरीत मध्य काल में भारतीय शासृक मुसलमान थे और अधिकांश भारतीय जनता हिन्दू थी। अत: मुस्लिम शासकों ने भारत में इस्लाम धर्म के प्रचार व प्रसार हेतु शिक्षा को एक साधन के रूप में इस्तेमाल किया तथा इस्लाम धर्म के नियमों के अनुसार ही छात्रों में इस्लाम धर्म की प्रवृत्ति को गति देने हेतु शैक्षणिक गतिविधियों को प्रचलित किया।
(ii)पाठ्यक्रम
प्राचीन तथा मध्यकाल में पाठ्यक्रम को तीन वर्गों में विभाजित किया गया था—
1. प्राथमिक स्तर का पाठ्यक्रम
प्राचीन काल में प्राथमिक शिक्षा की समयावधि 6 वर्ष की होती थी तथा 6 से 11 वर्ष के आयु वर्ग के बालकों को प्राथमिक स्तर की शिक्षा हेतु सुयोग्य माना जाता था। प्राथमिक शिक्षा मौखिक होती थी जिसमें बालकों को वैदिक मन्त्रों के उच्चारण का अभ्यास कराया जाता था। इसके उपरान्त छात्र पढ़ना-लिखना व व्याकरण सीखते थे। प्राथमिक स्तर की शिक्षा में सामान्य या प्रारम्भिक भाषा विज्ञान, प्रारम्भिक व्याकरण, प्रारम्भिक छन्द शास्त्र तथा प्रारम्भिक गणित आदि विषय सम्मिलित थे।
मध्ये काल में प्राश्चमिक शिक्षा की आयु 4 वर्ष,4 माह तथा 4 दिन निर्धारित की गई थी। बालकों को इस आयु सीमा को प्राप्त करने के अवसर पर एक संस्कार या धार्मिक रस्म पूर्ण करनी होती थी; जिसे ‘बिस्मिल्लाह-खानी’ केहा जाता था। इस काल में प्राथमिक स्तर की शिक्षा मौखिक विधि द्वारा ही प्रदान की जाती थी। मौलवियों द्वारा सम्बन्धित विषय को निरन्तर अभ्यास द्वारा कंठस्थ करवा दिया जाता था। इसके साथ ही लकड़ी की तख्तीपर लेखन का अभ्यास भी करवाया जाता था। साधारण वर्ग के परिवारों के बच्चों को प्राथमिक स्तर पर मुख्य रूप से पढ़ने-लिखने तथा प्रारम्भिक अंकगणित की ही शिक्षा दी जाती थी। मौखिक रूप से कुरान शरीफ की आयतों को सही उच्चारण में कंठस्थ करवाया जाता था। इसके उपरान्त लेखन, व्याकरण तथा फारसी भाषा का ज्ञान प्रदान किया जाता था।
बच्चों के चरित्र-निर्माण तथा साहित्यिक बोध के विकास का भी समुचित ध्यान रखा जाता था। प्राथमिक शिक्षा के अन्तर्गत इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए महापुरुषों की कथाएँ तथा शेख सादी की ‘बोस्ताँ एवं गुलिस्ताँ’ जैसी पुस्तकों को पढ़ाया जाता था। इनके साथ-ही-साथ कुछ प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय प्रेमकाव्यों को भी रुचिपूर्वक पढ़ाया जाता था। इसे वर्ग के मुख्य काव्य-संग्रह थे-लैला-मजनू, युसूफ-जुलेखा तथा सिकन्दरनामा आदि। जहाँ तक शाही-परिवारों तथा कुछ सम्पन्न परिवारों के बच्चों की शिक्षा का प्रश्न है, उसकी अलग से व्यवस्था होती थी तथा उन्हें व्यक्तिगत रूप से महत्त्वपूर्ण विषयों का ज्ञान प्रदान किया जाता था।
2. उच्च स्तर का पाठ्यक्रम
प्राचीनकालीन उच्चस्तरीय शिक्षा-प्राचीनकालीन भारतीय शैक्षिक-व्यवस्था में उच्चस्तरीय शिक्षा की अलग से व्यवस्था थी। इस शिक्षा को विशिष्ट शिक्षा के रूप में जाना जाता था। वर्ण-व्यवस्था की मान्यताओं के अनुसार केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ग के बालकों को ही उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त था। उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में विविधता तथा विकल्प उपलब्ध थे। आध्यात्मिक ज्ञान अर्जित करने के लिए छात्रों द्वारा वेद, वेदांग, पुराण, दर्शन, उपनिषद् आदि का अध्ययन किया जाता था। लेकिन ज्ञान अर्जित करने के लिए छात्रों द्वारा मुख्य रूप से भौतिकशास्त्र, भूगर्भशास्त्र, तर्कशास्त्र, इतिहास आदि विषयों का व्यवस्थित अध्ययन किया जाता था। उच्चस्तरीय शिक्षा का स्वरूप भी मौखिक ही था। गुरु द्वारा दिए गए व्याख्यान के साथ ही चिन्तन, मनन, स्वाध्याय तथा पुनरावृत्ति के माध्यम से अर्जित ज्ञान को आत्मसात् किया जाता था। मध्यकालीन शैक्षिक व्यवस्था के अन्तर्गत उच्च-स्तरीय शिक्षा की अवधि सामान्य रूप से 10-12 वर्ष हुआ करती थी। इस काल में भी उच्च-स्तरीय शिक्षा के दो प्रकार के पाठ्यक्रमों की व्यवस्था थी। एक वर्ग के पाठ्यक्रम में धार्मिक विषयों की शिक्षा प्रदान की जाती थी तथा दूसरे वर्ग के पाठ्यक्रम में लौकिक विषयों की शिक्षा का प्रावधान था। इसके साथ-ही-साथ इस्लाम धर्म के इतिहास, इस्लामी-कानून तथा इस्लामी सामाजिक मूल्यों एवं परम्पराओं का भी व्यवस्थित अध्ययन किया । जाता था। धार्मिक पाठ्यक्रम के अतिरिक्त लौकिक पाठ्यक्रम में सर्वप्रथम अरबी-फारसी भाषा साहित्य तथा व्याकरण का व्यापक अध्ययन किया जाता था। मध्यकाल के उच्च स्तर के मुख्य विषय थे-भूगोल, गणित, कृषि, अर्थशास्त्र, ज्योतिष, दर्शन घेवं नीतिशास्त्र, कानून तथा यूनानी-चिकित्सा पद्धति कहा जा सकता है। कि मध्यकालीन उच्च शिक्षा भी मौख़िक ही थी। सभी शिक्षक अपने विषय को व्याख्यान के रूप में प्रस्तुत करते थे तथा छात्र उसे सुनकर संमझ लेते थे। इसके अतिरिक्त संगीत, चित्रकला तथा चिकित्सा शास्त्र आदि विषयों की शिक्षा प्रदान करने के लिए प्रयोगात्मक विधि को भी अपनाया जाता था।
3. व्यावसायिक स्तर का पाठ्यक्रम
शिक्षा का एक पक्ष व्यावसायिक शिक्षा भी होता था। व्यावसायिक शिक्षा के आधार पर ही प्राचीन भारत अपने आर्थिक जीवन और वैभव का निर्माण करने में सफल हुआ था। अतः प्राचीनकालीन व्यावसायिक शिक्षा को मुख्य रूप से चार भागों में बाँटा था-सैन्य शिक्षा, वाणिज्य सम्बन्धी शिक्षा, चिकित्साशास्त्र सम्बन्धी शिक्षा, कला-कौशल सम्बन्धी शिक्षा तथा पुरोहित शिक्षा।
मध्यकालीन भारतीय शिक्षा का एक मुख्य उद्देश्य लौकिक उन्नति एवं प्रगति को निर्धारित करना था। अतः इस काल की शिक्षा-व्यवस्था में व्यावसायिक शिक्षा को भी समुचित महत्त्व दिया गया था। मध्यकालीन भारतीय शिक्षा-व्यवस्था में व्यावसायिक शिक्षा के रूप में मुख्य रूप से हस्तकलाओं की शिक्षा, चिकित्सा सम्बन्धी शिक्षा, सैन्य शिक्षा तथा ललित-कलाओं की शिक्षा की व्यवस्था की गयी थी।
(iii) शिक्षा केन्द्र
प्राचीन काल में शिक्षा के केन्द्र–टोल, चारण, घटिका, परिषद्, गुरुकुल, विद्यापीठ, विशिष्ट विद्यालय, मन्दिर, महाविद्यालय, ब्राह्मणीय महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय आदि थे। इसके विपरीत मध्य काल में शिक्षा के केन्द्र-मकतब, मदरसा, दरगाहें, खानकाहें, कुरान स्कूल, फारसी स्कूल, फारसी व कुरान स्कूल तथा अरबी भाषा के स्कूल आदि थे।