सामाजिक नियन्त्रण में राज्य की भूमिका
सामाजिक नियन्त्रण के अभिकरणों में राज्य सर्वशक्तिसम्पन्न सर्वोच्च अभिकरण है जो नियन्त्रण के क्षेत्र में अनेक प्रकार से अपनी भूमिका निभाता है। सामाजिक नियन्त्रण के रूप में राज्य की भूमिका निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट की जा सकती है
1. पारिवारिक जीवन पर नियन्त्रण-आधुनिक युग में राज्य परिवार पर अनेक प्रकार के नियन्त्रण लगाता है जो कि परिवार को विघटित होने से बचाने के लिए आवश्यक है। मैकाइवर एवं पेज के अनुसार परिवार को राज्य से अधिक कोई अन्य संस्था नियन्त्रित नहीं कर सकती। नियमों द्वारा राज्य विवाह की आयु, शर्त, अवधि और परिवार के स्वरूप का निर्धारण करता है। 1929 ई० में बाल विवाह पर नियन्त्रण लगे तथा आयु-सीमा निश्चित हुई। आज ‘हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955′ में संशोधन करके लड़की तथा लड़के के लिए आयु निर्धारित (लड़की के लिए 18 वर्ष और लड़के लिए 21 वर्ष) कर दी गई है। 1961 ई० में ‘दहेज विरोधी अधिनियम’ भी पारित हुआ। 1956 ई० में ‘हिन्दू उत्तर:ाधिकार अधिनियम’ द्वारा स्त्रियों को भी सम्पत्ति में हिस्सा मिलने लगा है। 1978 ई० के शिक्षा अधिनियम’ द्वारा प्राथमिक शिक्षा सार्वजनिक रूप से अनिवार्य कर दी गई है। इन सब अधिनियमों द्वारा राज्य परिवार को नियन्त्रित करता है।
2. आर्थिक व्यवस्था पर नियन्त्रण-जीवन-यापन और क्षुधापूर्ति के लिए विभिन्न आर्थिक साधनों का समाज में उपयोग किया जाता है। इस अर्थव्यवस्था पर राज्य जैसे प्रभुतासम्पन्न शक्ति का नियन्त्रण होना आवश्यक है। इससे ही अर्थव्यवस्था को संरक्षण मिलता है। इस उद्देश्य से अर्थव्यवस्था में सन्तुलन लाने के लिए राज्य आवश्यकतानुसार विशिष्ट उद्योगों का राष्ट्रीयकरण कर उन पर अपना नियन्त्रण रखता है। अनेक श्रम अधिनियमों द्वारा वेतन एवं पारिश्रमिक निश्चित करता है तथा राष्ट्रीय सम्पत्ति का समान वितरण भी राज्य की अनुपम विशिष्टता होती है। आर्थिक संकट के समय दैनिक आवश्यकता की वस्तुएँ उपलब्ध कराना तथा आर्थिक विकास में सहयोग देना राज्य का कर्तव्य है तथा असन्तुलन और अनियमितता पर नियन्त्रण करना भी इसी का अधिकार है।
3. सामाजिक क्रियाओं पर नियन्त्रण और निर्देशन-राज्य समाज के समक्ष एक नियमावली रखता है जिसमें अनेक प्रकार की सामाजिक क्रियाओं के नियन्त्रण एवं निर्देशन का वर्णन होता है। ये सभी सामाजिक उन्नति के लिए आवश्यक हैं। प्रचार द्वारा राज्य व्यक्ति को बताता है कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। भारत में अखण्डता और एकता बनाए रखने के लिए साम्प्रदायिकता, भाषावाद, प्रान्तीयता, क्षेत्रीयता आदि के विरुद्ध प्रचार द्वारा नियन्त्रण रखकर राज्य समाज के हित में कल्याणकारी कार्य करता है। राज्य सामाजिक अधिनियमों को पारित करके कुप्रथाओं पर नियन्त्रण करता है। 1829 ई० में सती प्रथा निरोधक अधिनियम’ तथा 1955 ई० में ‘अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम द्वारा इन्हें (सती प्रथा तथा अस्पृश्यता को) सामाजिक अपराध घोषित किया गया है।
4. बाह्य आक्रमण से देश की रक्षा-राज्य का महत्त्वपूर्ण कार्य बाहरी आक्रमण से देश की रक्षा करना है; अत: इसके लिए अस्त्र-शस्त्र, सेना, पुलिस चौकियों, सड़कों एवं युद्धपोतों आदि का प्रबन्ध राज्य ही करता है जिससे आवश्यकता पड़ने पर तुरन्त इनका उपयोग किया सके। ऐसे समय में एवं शान्ति के समय भी समाज-विरोधी तत्वों की सक्रियता पर नियन्त्रण रखना राज्य का आवश्यक कार्य है।
5. आन्तरिक सुव्यवस्था और शान्ति बनाए रखना-प्रत्येक समाज में कुछ-न-कुछ समाज-विरोधी तत्त्व अवश्य होते हैं जिन पर नियन्त्रण रखकर राज्य देश की आन्तरिक सुव्यवस्था और शान्ति बनाए रखता है। इसके लिए राज्य कानून, पुलिस और सेना का भी सहयोग लेता है क्योंकि सामान्य स्थिति बनाए रखना आवश्यक है जिससे हड़ताल, तालाबन्दी, घेराव, साम्प्रदायिक दंगे इत्यादि न हो सकें।
6. मौलिक अधिकारों की रक्षा-किसी कल्याणकारी राज्य में मौलिक अधिकारों का संरक्षण करके समाज-विरोधी तत्त्वों को नियन्त्रित किया जाता है। ये मौलिक अधिकार ही जनता की स्वतन्त्रता के प्रतीक हैं। स्वतन्त्रता (भाषण, लेखन और विचारों की स्वतन्त्रता), शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने का अधिकार, सम्पत्ति और शिक्षा प्राप्ति का अधिकार आदि मौलिक अधिकार ही हैं। यदि कोई व्यक्ति इन अधिकारों को भंग करता है तो राज्य उसे कठोर दण्ड देता है तथा जिसके अधिकारों का हनन किया गया है उसे संरक्षण प्रदान
करता है।
7. कानून द्वारा नियन्त्रण-राज्य ने अपनी उत्पत्ति के समय ही अपने कार्यों की शक्ति कुछ नियमों व उपनियमों में निहित कर ली थी। वे आज्ञाएँ और आदेश ही कानून कहलाते हैं। जिनका पालन न करने पर दण्ड की व्यवस्था होती है जो सामाजिक नियन्त्रण में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है। दण्ड विधान दो प्रकार से सामाजिक नियन्त्रण रखता है–
⦁ अपराधियों पर कठोर दृष्टि रखते हुए उन्हें बन्दी बनाकर एवं उनका समाज से बहिष्कार करके तथा
⦁ दण्ड के भय द्वारा अपराध रोककर।
8. अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था का नियमन-राज्य राष्ट्रीय कार्य-व्यवहारों पर तो नियन्त्रण रखता ही है, साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहारों पर भी नियन्त्रण लगाता है क्योंकि आज के इस प्रगतिशील युग में मानव का कार्य-क्षेत्र देश की सीमा से बाहर विदेशों तक हो गया है; अतः अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार विकसित हुए हैं। इनका प्रभाव आन्तरिक व्यवस्था पर भी पड़ता है; अत: संचार, उद्योग, यातायात, सांस्कृतिक आदान-प्रदान आदि को राज्य निर्देशित व नियन्त्रित रखता है।
मैकाइवर एवं पेज ने सामाजिक नियन्त्रण में राज्य की महत्ता के बारे में ठीक ही कहा है, “राज्य आवश्यक रूप से एक व्यवस्था उत्पन्न करने वाला संगठन है। यह व्यवस्था को बनाए रखने के लिए है; परन्तु नि:सन्देह यह केवल व्यवस्था-मात्र के लिए ही नहीं अपितु जीवन की उन समस्त सम्भावनाओं के लिए है जिनको सुव्यवस्था के आधार की अपेक्षा है। इस प्रकार सिद्ध होता है कि सामाजिक नियन्त्रण में सबसे प्रमुख औपचारिक अभिकरण राज्य ही है जो जनहित के लिए नियन्त्रण लगाता है।