परिवार समाज की प्रथम इकाई है और सामाजिक नियन्त्रण का प्रमुख साधन है। सामजिक नियन्त्रण के क्षेत्र में कोई भी दूसरा समूह व्यक्ति के जीवन को इतना प्रभावित नहीं करता जितना कि परिवार। इसी आधार पर परिवार को सामाजिक नियन्त्रण का प्रमुख अभिकर्ता कहा जाता है। व्यक्ति के विकास में परिवार की अहम भूमिका है। परिवार ही व्यक्ति को समाज सम्बन्धी आदर्शों, रूढ़ियों और प्रचलित रीति-रिवाजों से परिचित कराती है। त्याग, बलिदान, सहायता, दया, सहनशीलता, धैर्य आदि की शिक्षा व्यक्ति को परिवार के माध्यम से ही प्राप्त होती है। परिवार व्यक्ति के बुरे कार्यों की निन्दा और अच्छे कार्यों की प्रशंसा करता है। परिवार की परिस्थितियाँ ही व्यक्ति को अच्छा या बुरा बना देती हैं। इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि सामाजिक नियन्त्रण में परिवार अहम भूमिका निभाता है। संक्षिप्त रूप में सामाजिक नियन्त्रण में परिवार की भूमिका का वर्णन निम्न प्रकार से है
1. शिक्षा द्वारा नियन्त्रण-परिवार शिक्षा की सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण तथा प्रभावशाली पाठशाला है। अनेक महापुरुषों का चरित्र-गठन उनके परिवार में ही हुआ है। इटली के प्रजातन्त्र के जन्मदाता मैजिनी का कथन है, “नागरिकता का प्रथम पाठ माता के चुम्बन और पिता के दुलार में ही सीखा जाता है।” अब्राहम लिंकन ने परिवार की महत्ता स्पष्ट करते हुए कहा है, जो कुछ भी मैं आज हूँ और जो कुछ भी बनने की आशा करता हूँ, वह सब कुछ मेरी देवीस्वरूप माता के कारण है।” परिवार में ही हम आत्म-संयम की अमूल्य शिक्षा प्राप्त करते हैं। हमारा सामाजिक विकास परिवार में ही होता है। यदि परिवार का नियन्त्रण शिथिल पड़ जाता है तो समाज में विघटने प्रारम्भ हो जाता है।
2. दण्ड-व्यवस्था द्वारा नियन्त्रण-व्यक्ति को अनुशासित और सामाजिक नियन्त्रण में रखने के लिए प्रत्येक परिवार में दण्ड की व्यवस्था होती है, जिसके भय से व्यक्ति सामाजिक नियन्त्रण में बँधा रहता है। परिवार कभी भी अपने सदस्यों को शारीरिक दण्ड नहीं देता और न ही उत्पीड़न का सहारा लेता है, बल्कि सहानुभूति के द्वारा सदस्यों पर नियन्त्रण लगाता है। साधारणतया, आलोचना, व्यंग्य तथा परिहास आदि साधनों के द्वारा ही सदस्यों को दण्डित किया जाता है और इस प्रकार उनके व्यवहारों पर नियन्त्रण लगाया जाता है।
3. यौन-व्यवहारों का नियन्त्रण-प्राणिशास्त्रीय कार्य के रूप में यौन-इच्छाओं की पूर्ति को एकमात्र साधन परिवार ही है। परिवार ही विवाह संस्कार के माध्यम से युवक-युवतियों को दाम्पत्य सूत्र में बाँधकर उन्हें यौन-इच्छाओं की सन्तुष्टि करने के अवसर जुटाता है। परिवार ही यह निश्चित करता है कि एक विशेष सदस्य का विवाह कब और किसके साथ तथा किस प्रकार हो। परिवार अपनी जाति में ही विवाह करने को बाध्य करता है। इस प्रकार परिवार विवाह सम्बन्धी नियन्त्रण लगाता है। इस प्रकार के नियन्त्रण के कारण व्यक्ति अनेक बुराइयों से बच जाता है तथा स्त्रियों को बुरी दृष्टि से नहीं देखता, जिससे समाज में व्यवस्था बनी रहती है।
4.समाजीकरण और सामाजिक नियन्त्रण-समाजीकरण के दृष्टिकोण से सामाजिक नियन्त्रण में परिवार का महत्त्वपूर्ण स्थान है। परिवार ही व्यक्ति को समाजीकरण करता है। वह समाजीकरण की प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति को सामाजिक नियमों के अनुकूल बनाता है। इस प्रक्रिया द्वारा व्यक्ति को सामाजिक आदर्शों, संस्कृति, परम्पराओं, रूढ़ियों आदि का ज्ञान प्राप्त होता है तथा वह आगे चलकर जीवन में इन सीखी हुई बातों को प्रयोग में लाता। है, जो सामाजिक नियन्त्रण में सहायक होती हैं।
5. सांस्कृतिक मूल्यों की शिक्षा द्वारा नियन्त्रण-प्रत्येक समाज की अपनी संस्कृति होती है। परिवार में उसी संस्कृति के अनुसार कार्य किये जाते हैं। उदाहरण के लिए भारतीय समाज में वृद्ध व्यक्तियों के सम्मान और संयुक्त परिवार व्यवस्था को अच्छा समझा जाता है। परिवार में व्यक्ति को इसी के अनुसार कार्य करने की शिक्षा दी जाती है। इस प्रकार वह वृद्ध व्यक्तियों तथा संयुक्त परिवार का आदर करना सीख जाता है। इस तरह सामाजिक जीवन संगठित बना रहता है। वास्तविकता तो यह है कि समाज में नियन्त्रण का अभाव तभी उत्पन्न होता है जब व्यक्ति अपने सांस्कृतिक मूल्यों के अनुसार कार्य नहीं करते। परिवार ही अपने सदस्यों को समाज के सांस्कृतिक मूल्यों से अवगत कराता है। इस प्रकार परिवार के सदस्य सांस्कृतिक प्रतिमानों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित करके सांस्कृतिक कार्य के रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इससे सामाजिक संस्कृति के अस्तित्व के साथ-ही-साथ सामाजिक संगठन तथा नियन्त्रण बना रहता है।
6. सामंजस्य तथा सुरक्षा द्वारा नियन्त्रण-पारिवारिक जीवन में सुख, दु:ख, बीमारी, बेकारी आदि अनेक प्रकार की समस्याएँ जन्म लेती हैं। इन परिस्थितियों से सामंजस्य करने की प्रेरणा भी परिवार में ही दी जाती है। पारिवारिक समायोजन का यह कार्य व्यक्ति को विघटित होने से बचाता है।
7. सदस्यों की देख-रेख द्वारा नियन्त्रण-परिवार अपने सदस्यों की सामान्य देख-रेख करके यह विश्वास दिलाता है कि उनकी वास्तविक आवश्यकताएँ परिवार में ही पूरी हो सकती हैं। साथ ही परिवार व्यक्ति को इस प्रकार की शिक्षा भी देता है जो जीवन के लिए सबसे अधिक उपयोगी होती है। इससे व्यक्ति यह समझने लगता है कि उसका सामाजिक जीवन तभी प्रगतिशील बन सकेगा जब वह परिवार के आदर्शों का पालन करेगा। इस भावना ‘ के साथ ही व्यक्ति जीवन नियन्त्रण में बँध जाता है।
8. मानवीय गुणों का विकास द्वारा नियन्त्रण-परिवार बालक में अनेक मानवीय गुणों को विकसित करता है। मानवीय गुणों में प्रेम, सहयोग, दया, सहानुभूति, आत्म-त्याग, सहिष्णुता, परोपकार, कर्तव्यपालन तथा आज्ञापालन प्रमुख हैं। ये सभी ऐसे गुण हैं जिनके द्वारा व्यक्ति का जीवन स्वयं नियन्त्रित हो जाता है।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि परिवार सामाजिक नियन्त्रण में प्रमुख भूमिका निभाता है। परिवार का नियन्त्रण अधिक स्थायी और प्रभावशाली सिद्ध होता है। संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि परिवार केवल सामाजिक नियन्त्रण में सहायता ही नहीं करता वरन् यह समाजीकरण की प्रक्रिया को भी सम्भव बनाता है।
सामाजिक नियन्त्रण के एक अभिकरण के रूप में परिवार के महत्त्व में कमी
यद्यपि सामाजिक नियन्त्रण के एक अभिकरण के रूप में परिवार की सदैव से ही महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। परन्तु औद्योगीकरण, नगरीकरण, लोकतन्त्रीकरण, शिक्षा का प्रसार, आर्थिक स्वतन्त्रता, व्यक्तिवादिता आदि कारकों के परिणामस्वरूप आज अनेक क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए हैं। इन परिवर्तनों का परिवार की संरचना पर भी प्रभाव पड़ा है, जिसके फलस्वरूप आज परिवार सामाजिक नियन्त्रण के अभिकरण के रूप में अपना महत्त्व खोता जा रहा है, क्योंकि इन सभी तथा अन्य और भी कई कारकों ने परिवारिक नियन्त्रण एवं बन्धनों को सर्वथा शिथिल कर दिया है
उदाहरणार्थ-आज के परिवारों में पिता की शक्ति का ह्रास हुआ है। परिवारों में न तो पिता की आज्ञाओं को अन्तिम माना जाता है और न ही उसकी शक्ति को ईश्वरीय समझा जाता है; अतः एक ही परिवार के सदस्य पृथक्-पृथक् मार्गों पर चलकर अपने उद्देश्य की प्राप्ति करना चाहने लगे हैं। परिवार के सभी सदस्यों में एकमत का अभाव होता जा रहा है, किसी के ऊपर किसी को नियन्त्रण नहीं है। अब परिवार के सभी सदस्य अपनी इच्छा, दृष्टि, विचार तथा हित को ध्यान में रखकर कार्य करने लगे हैं। इन सभी बातों से स्पष्ट है कि वर्तमान युग में सामाजिक नियन्त्रण के अभिकरण के रूप में परिवार का महत्त्व घटता जा रहा है।