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चर्चा कीजिए कि बर्नियर का वृत्तांत किस सीमा तक इतिहासकारों को समकालीन ग्रामीण समाज को पुनर्निर्मित करने में सक्षम करता है?

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बर्नियर के अनुसार भारत और यूरोप के बीच मूल भिन्नताओं में से एक भारत में निजी भू-स्वामित्व का अभाव था। उसका निजी स्वामित्व के गुणों में दृढ़ विश्वास था और उसने भूमि पर राजकीय स्वामित्व को राज्य तथा उसके निवासियों, दोनों के लिए हानिकारक माना। उसे यह लगा कि मुगल साम्राज्य में सम्राट सारी भूमि का स्वामी था जो इसे अपने अमीरों के बीच बाँटता था, जिससे अर्थव्यवस्था और समाज के लिए अनर्थकारी परिणाम सामने आते थे। इस प्रकार का अवबोधन बर्नियर तक ही सीमित नहीं था बल्कि सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दी के अधिकांश यात्रियों के वृत्तांतों में मिलता है। राजकीय भू-स्वामित्व के कारण बर्नियर तर्क देता है कि भू-धारक अपने बच्चों को भूमि नहीं दे सकते थे।

इसलिए वे उत्पादन के स्तर को बनाए रखने और उसमें बढ़ोत्तरी के दिए दूरगामी निवेश के प्रति उदासीन थे। इस प्रकार निजी भू-स्वामित्व के अभाव ने ‘बेहतर’ भू-धारकों के वर्ग के उदय (जैसा कि पश्चिमी यूरोप में) को रोका जो भूमि के रख-रखाव व बेहतरी के प्रति सजग रहते। इसी के चलते कृषि का समान रूप से विनाश, किसानों का उत्पीड़न तथा समाज के सभी वर्गों के जीवन स्तर में अनवरत पतन की स्थिति उत्पन्न हुई है, सिवाय शासक वर्ग के। बर्नियर भारतीय समाज को दरिद्र लोगों के समरूप जनसमूह से बना वर्णित करता है, जो एक बहुत अमीर तथा शक्तिशाली शासक वर्ग, जो अल्पसंख्यक होते हैं, के द्वारा अधीन बनाया जाता है।

गरीबों में सबसे गरीब तथा अमीरों में सबसे अमीर व्यक्ति के बीच नाममात्र का भी कोई सामाजिक समूह या वर्ग नहीं था। बर्नियर बहुत विश्वास से कहता है, “भारत में मध्य की स्थिति के लोग नहीं हैं।” बर्नियर के विवरणों ने अठाहरवीं शताब्दी के पश्चिमी विचारकों को काफी प्रभावित किया। उदाहरण के लिए, फ्रांसीसी दार्शनिक मॉन्टेस्क्यू ने उसके वृत्तांत का प्रयोग प्राच्य निरंकुशवाद के सिद्धांत को विकसित करने में किया, जिसके अनुसार एशिया में शासक अपनी प्रजा के ऊपर निर्बाध प्रभुत्व का उपभोग करते थे। प्रजा को दासता और गरीबी की स्थितियों में रखा जाता था। इस तर्क का आधार यह था कि सारी भूमि पर राजा का स्वामित्व होता था तथा निजी संपत्ति अस्तित्व में नहीं थी।

इस दृष्टिकोण के अनुसार राजा और उसके अमीर वर्ग को छोड़कर प्रत्येक व्यक्ति मुश्किल से गुजर-बसर कर पाता था। कार्ल मार्क्स ने यह तर्क दिया कि भारत तथा अन्य एशियाई देशों में उपनिवेशवाद से पहले अधिशेष का अधिग्रहण राज्य द्वारा होता था। इससे एक ऐसे समाज का उद्भव हुआ जो बड़ी संख्या में स्वायत्त तथा (आंतरिक रूप से) समतावादी ग्रामीण समुदायों से बना था। इन ग्रामीण समुदायों पर राजकीय दरबार का नियंत्रण होता था और जब तक अधिशेष की आपूर्ति निर्विघ्न रूप से जारी रहती थी, इनकी स्वायत्तता का सम्मान किया जाता था। यह एक निष्क्रिय प्रणाली मानी जाती थी। ग्रामीण समाज का यह चित्रण सच्चाई से बहुत दूर था। बल्कि सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में ग्रामीण समाज में चारित्रिक रूप से बड़े पैमाने पर सामाजिक और आर्थिक विभेद था।

एक ओर बड़े जमींदार थे जो भूमि पर उच्चाधिकारों का उपभोग करते थे और दूसरी ओर ‘अस्पृश्य’ भूमिविहीन श्रमिक (बलाहार)। इन दोनों के बीच बड़ा किसान था जो किराए के श्रम का प्रयोग करता था और माल उत्पादन में संलग्न रहता था; साथ ही अपेक्षाकृत छोटे किसान भी थे जो मुश्किल से ही निर्वहन लायक उत्पादन कर पाते थे। कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि बर्नियर का वृत्तांत समकालीन ग्रामीण समाज के पुर्निर्माण में इतिहासकारों की अधिक सहायता नहीं करता। इसका प्रमुख कारण यह है कि उसका भारत संबंधी विवरण पक्षपातपूर्ण है तथा द्वि-विपरीतता के नमूने । पर आधारित है, जिसमें भारत को यूरोप के ‘प्रतिलोम’ के रूप में वर्णित किया गया है। वास्तव में, बर्नियर का मुख्य उद्देश्य पूर्व और पश्चिम का तुलनात्मक अध्ययन करना था। परिणामस्वरूप उसके द्वारा भारत को ‘अल्पविकसित पूर्व के रूप में चित्रित किया गया है।

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