उत्तराधिकार के लिए युद्ध- शाहजहाँ के जीवनकाल में ही उत्तराधिकार के लिए उसके पुत्रों में युद्ध आरम्भ हो गए थे। शाहजहाँ भयंकर बीमारी से ग्रस्त हो गया। अत: दारा ने शाहजहाँ के बीमार पड़ने के उपरान्त राज्य कार्य का भार संभाला तथा वह चाहता था कि बादशाह की बीमारी का समाचार भाइयों को ज्ञात न हो। परन्तु बादशाह की बीमारी का समाचार छुप न सका तथा सर्वप्रथम बंगाल में स्थित शाहशजा ने अपने को सम्राट घोषित किया, क्योंकि सभी को बादशाह की मृत्यु का विश्वास हो चुका था। इसी प्रकार गुजरात में मुराद ने अपने नाम से खुतबा पढ़वाया तथा अपने नाम के सिक्के ढलवाए। दारा को इन दोनों भाइयों का इतना भय नहीं था जितना कि औरंगजेब का।
औरंगजेब को दरबार में घटित होने वाली घटनाओं की सम्पूर्ण सूचना रोशनआरा से मिलती रहती थी। उसने आगरा जाने वाले मार्ग को बन्द कर दिया, जिससे उसकी तैयारियों की सूचना किसी को प्राप्त न हो सके तथा मीर जुमला के साथ मिलकर उसने सैनिक शक्ति बढ़ानी आरम्भ कर दी। उसने सम्पूर्ण तैयारियों के उपरान्त बीजापुर और गोलकुण्डा के सुल्तानों से मैत्री स्थापित कर ली। शुजा अथवा मुराद के समान उसने स्वयं को बादशाह घोषित नहीं किया वरन् उसने घोषणा की कि वह तो पाक मुसलमान है तथा मक्का में एक दरवेश का जीवन व्यतीत करना चाहता है और मक्का जाने से पूर्व अपने पिता के दर्शन करने दिल्ली जा रहा है।
1. मुराद के साथ गठबन्धन – औरंगजेब अपने भाइयों में सबसे बुद्धिमान था। वह जानता था कि मुराद व्यसनी तथा मूर्ख है। और उसकी सहायता सरलता से प्राप्त की जा सकती है। सर्वप्रथम उसने मुराद के इस कार्य की निन्दा की कि उसने स्वयं को बादशाह घोषित करके सूरत पर अधिकार कर लिया है। औरंगजेब ने मुराद को पत्र लिखा कि जब तक शाहजहाँ की मृत्यु की सूचना नहीं मिलती, उसका यह कार्य सर्वथा निन्दनीय है। तदुपरान्त गुप्त रूप से दोनों भाइयों ने समझौता किया कि दारा को मार्ग से हटाने के उपरान्त ये दोनों परस्पर राज्य का विभाजन कर लेंगे, जिसके अनुसार कश्मीर, अफगानिस्तान, सिन्ध तथा पंजाब मुराद को मिलेगा तथा शेष साम्राज्य पर औरंगजेब का अधिकार होगा।
औरंगजेब ने तो यहाँ तक कहा कि उसे राज्य की कोई इच्छा नहीं, वह तो फकीर बनना चाहता है, किन्तु दारा के समान काफिर के हाथ में राज्य की बागड़ोर छोड़ने से इस्लाम के प्रति गद्दारी होगी इसलिए वह दारा से युद्ध करना अपना कर्तव्य समझता है। इन चापलूसी-भरी बातों में मुराद फँस गया तथा उज्जैन के निकट दीपालपुर में दोनों भाइयों ने मिलकर शपथ ली कि साम्राज्य को विभाजित कर लिया जाएगा और धरमत नामक स्थान पर दारा की सेनाओं का सामना करने का निश्चय करके उन्होंने सैन्यबल के साथ धरमत के लिए प्रस्थान किया।
2. बहादुरपुर का युद्ध (24फरवरी, 1658 ई०) – जिस समय मुराद तथा औरंगजेब दारा के विरुद्ध युद्ध की योजनाएँ बना रहे थे, शाहशुजा ने स्वयं को बादशाह घोषित किया तथा एक विशाल सेना के साथ दिल्ली की ओर बढ़ा। मार्ग में बिहार के अनेक प्रदेशों को रौंदता हुआ 24 जनवरी, 1658 ई० को वह बनारस पहुँच गया। दारा चाहता था कि औरंगजेब का सामना करने से पूर्व ही वह शाहशुजा का अन्त कर दे; अतः उसने सर्वप्रथम अपने पुत्र सुलेमान शिकोह तथा राजा जयसिंह के नेतृत्व में एक सेना भेजी। दोनों सेनाओं में 24 फरवरी को बनारस से लगभग पाँच मील दूर बहादुरपुर नामक स्थान पर भीषण संग्राम हुआ, जिसमें शुजा बुरी तरह पराजित हुआ तथा अपनी जान बचाने के लिए बंगाल की ओर भाग गया।
3. धरमत का युद्ध (15 अप्रैल, 1658 ई०) – शाहशुजा की ओर सेनाएँ भेजकर ही दारा चुप नहीं बैठा, उसने कासिम खाँ तथा राजा जसवन्त सिंह के नेतृत्व में दूसरी विशाल सेना मुराद तथा औरंगजेब से युद्ध करने के लिए भेज दी। दारा ने राजा जसवंत सिंह को आज्ञा देकर भेजा था कि वह प्रयत्न करके युद्ध के बिना ही दोनों शहजादों को उनके प्रान्तों में वापस भेज दे, किन्तु यह प्रयास विफल रहा। अन्त में धरमत नामक स्थान पर दोनों पक्षों में भयंकर संग्राम हुआ, किन्तु अन्त में राजा जसवन्त सिंह पराजित हो रणक्षेत्र छोड़कर भाग खड़ा हुआ।
दारा ने सुलेमान शिकोह को बिहार से बुला भेजा, किन्तु वह देर से पहुँचा। तब तक मुगलों की सेनाएँ पराजित हो चुकी थीं। औरंगजेब को इस विजय से बहुत प्रोत्साहन मिला तथा उसे बड़ी मात्रा में अस्त्र-शस्त्र एवं अपार धन प्राप्त हुआ। इस विजय से औरंगजेब के सम्मान और शक्ति में काफी वृद्धि हो गई। यहाँ पर अपनी विजय के उपलक्ष्य में उसने एक छोटे-से-नगर फहेताबाद का निर्माण करवाया तथा चम्बल पार करके ग्वालियर की ओर बढ़ा। ग्वालियर के निकट सामूगढ़ के मैदान में उसने पुनः शाही फौजों से टक्कर लेने का निश्चय करके पड़ाव डाल दिया।
4. सामूगढ़ का युद्ध (29 मई, 1658 ई०) – इसी समय शाहजहाँ, जिसने आगरा से दिल्ली के लिए प्रस्थान कर दिया था, यह समाचार सुनकर वापस लौट आया। दारा औरंगजेब का पूर्ण विनाश करने की तैयारियों में संलग्न था। शाहजहाँ यह युद्ध नहीं चाहता था परन्तु वह दारा को रोकने में सर्वथा असमर्थ रहा। दारा 50,000 सैनिकों के साथ सामूगढ़ पहुँचा। दारा ने एक बड़ी भूल यह की कि अपने पुत्र सुलेमान शिकोह की प्रतीक्षा किए बिना ही वह आगरा से चल पड़ा। सुलेमान योग्य सेनापति था तथा शुजा को पराजित करके आगरा लौट रहा था।
दोनों भाइयों की सेनाओं में भीषण संघर्ष हुआ तथा औरंगजेब और मुराद बड़ी वीरतापूर्वक लड़े और शाही सेना का विनाश करने लगे। निराश होकर दारा अपना हाथी छोड़कर घोड़े पर सवार होकर लड़ने लगा। परन्तु उसके हाथी का हौदा खाली देखकर सैनिकों ने समझा कि दारा की मृत्यु हो गई और उसकी सेना में भगदड़ मच गई। औरंगजेब की पूर्ण विजय हुई तथा दारा की सेनाएँ भाग गई। अपनी इस पराजय से निराश होकर दारा तथा उसका पुत्र सुलेमान शिकोह आगरा की ओर बढ़े और रात्रि तक आगरा जा पहुँचे। औरंगजेब ने दारा के शिविर को लूटा तथा वहाँ से उसे काफी सम्पत्ति और बारूद प्राप्त हुई। मुराद इस युद्ध में घायल हो गया था। उसकी परिचर्या के लिए औरंगजेब ने कुशल जर्राह नियुक्त किए तथा उसे गद्दी प्राप्त करने की बधाई दी।
सामूगढ़ के युद्ध का अत्यधिक महत्त्व है। स्मिथ के अनुसार- “सामूगढ़ के युद्ध ने उत्तराधिकार के युद्ध का निर्णय कर दिया। इस युद्ध से लेकर शुजा की मृत्यु तक की घटनाओं ने यह सिद्ध कर दिया कि औरंगजेब शाहजहाँ का सबसे योग्य पुत्र तथा सिंहासन का वास्तविक अधिकारी है।”
5. औरंगजेब तथा मुराद का आगरा आगमन- सामूगढ़ के युद्ध में विजय प्राप्त करके साहस तथा उत्साह से भरे हुए। औरंगजेब और मुराद आगरा की ओर चल पड़े तथा नूर-ए-बाग नामक उद्यान में, जो आगरा के निकट ही था, उन्होंने पड़ाव डाल दिया। इस समय तक पराजित दारा के अधिकांश पक्षपातियों ने उसका साथ छोड़कर विजेता औरंगजेब का साथ देना आरम्भ कर दिया था तथा उससे क्षमा माँग ली थी। औरंगजेब ने उन्हें अपनी ओर मिलाकर शाहजहाँ से इस भीषण युद्ध के लिए क्षमा माँगी तथा साथ-ही-साथ दारा पर इस युद्ध का उत्तरदायित्व डाल दिया। शाहजहाँ ने आलमगीर नामक एक तलवार औरंगजेब के पास भेजी तथा उससे मिलने की इच्छा प्रकट की परन्तु औरंगजेब के मित्रों ने उसे परामर्श दिया कि वह शाहजहाँ को बन्दी बना ले। औरंगजेब को यह सलाह पसन्द आई।
6. शाहजहाँ का बन्दी बनाया जाना – औरंगजेब ने मुराद को आगरा के दुर्ग पर अधिकार करने के लिए भेजा। मुराद ने यमुना का पानी दुर्ग में जाने का मार्ग बन्द कर दिया। दुर्ग में स्थित सैनिकों ने थोड़ा-बहुत युद्ध किया परन्तु पानी के अभाव के कारण उन्होंने पराजय स्वीकार कर ली। औरंगजेब के हाथों शाहजहाँ द्वारा दारा को लिखा एक पत्र पड़ गया, जिसमें लिखा था कि वह दिल्ली के दुर्ग की सुरक्षा का पूर्ण प्रबन्ध रखे।
यह पत्र पढ़कर औरंगजेब का सन्देह पक्का हो गया कि बादशाह उसे धोखा देना चाहता है; अतः उसने बादशाह को बन्दी बनाकर आगरा के दुर्ग में स्थित मोती मस्जिद की एक छोटी-सी कोठरी में भेज दिया, जहाँ हिन्दुस्तान के शानदार बादशाह ने अपने जीवन के अन्तिम आठ वर्ष बड़े दु:ख एवं कष्ट में व्यतीत किए। अन्त में 22 जनवरी, 1666 ई० को उसकी मृत्यु के साथ ही उसके कष्टों का अन्त हो गया। मृत्यु के उपरान्त ताजमहल में मुमताजमहल की कब्र के निकट ही शाहजहाँ को भी दफना दिया गया।
7. मुराद का अन्त – शाहजहाँ को बन्दी बनाने के उपरान्त औरंगजेब राज्य का वास्तविक शासक बन बैठा था। वह दरबार में सिंहासन पर बैठता था तथा समस्त अमीर उसे अपना बादशाह मानते थे। जब मुराद को औरंगजेब की वास्तविक इच्छा का पता लगा तो उसने गड़बड़ करने का प्रयास किया, परन्तु औरंगजेब के सम्मुख मुराद जैसे मूर्ख को सफलता मिलनी असम्भव थी। औरंगजेब ने उसे मथुरा में भोजन के लिए आमन्त्रित किया तथा बढ़िया खाने और शराब के अत्यधिक सेवन से मुराद संज्ञाहीन होकर अपने भाई के हाथों बन्दी बना लिया गया। मुराद ने विरोध किया तथा औरंगजेब को उसकी शपथ याद दिलवाई, परन्तु औरंगजेब पर इसका कोई प्रभाव न पड़ा। यहाँ से मुराद को ग्वालियर के दुर्ग में भेज दिया गया तथा अपने दीवान अली नकी की हत्या के आरोप में उसे प्राणदण्ड दे दिया गया। 4 दिसम्बर, 1661 ई० को इस अभागे शहजादे ने बन्दीगृह में दम तोड़ दिया। वहीं दुर्ग में उसके शव को दफना दिया गया। इस प्रकार अपने विरोधियों का औरंगजेब ने एक-एक करके सफाया करना आरम्भ कर दिया।