औरंगजेब के चरित्र का मूल्यांकन
लेनपूल के अनुसार – “औरंगजेब को अपने जीवन में भयंकर असफलता देखनी पड़ी, परन्तु उसकी असफलता बड़ी शानदार थी। उसने अपनी आत्मा को समस्त संसार के विरुद्ध खड़ा कर दिया और अन्त में संसार को विजय प्राप्त हुई। उसने अपने लिए कर्तव्य का एक मार्ग निश्चित किया और यह मार्ग व्यावहारिक था अथवा नहीं इसकी चिन्ता किए बिना वह उस पर दृढ़तापूर्वक अग्रसर होता गया।”
खाफी खाँ ने औरंगजेब का मूल्यांकन करते हुए लिखा है – “तैमूर के वंशजों में ही नहीं वरन् सिकन्दर लोदी के पश्चात् दिल्ली के सभी शासकों में ऐसा कोई नहीं हुआ, जिसमें इतनी भक्ति, तपस्या तथा न्याय की भावना हो। साहस, सहनशीलता तथा ठोस निर्णयात्मक बुद्धि में कोई औरंगजेब की समता नहीं कर सकता था। किन्तु उसे शरा (नियम, कानून) में अत्यधिक श्रद्धा थी इसलिए वह दण्ड का प्रयोग नहीं करता था और बिना दण्ड के किसी देश की प्रशासन-व्यवस्था कायम नहीं रखी जा सकती। प्रत्येक योजना जो वह बनाता, निरर्थक सिद्ध होती और जो भी साहसिक कार्य वह अपने हाथों में लेता, उसके कार्यान्वित होने में बड़ी देर लगती और अन्त में उसका उद्देश्य पूरा न होता।”
प्रो० जे०एन० सरकार तथा के०के० दत्त के अनुसार – “औरंगजेब में बहुत-से उत्तम गुण थे, परन्तु वह एक सफल शासक न था। वह एक चतुर कूटनीतिज्ञ था, परन्तु कुशल राजनीतिज्ञ न था। सारांश यह है कि उसमें वह राजनीतिक प्रतिभा न थी, जो मुगल सम्राटों में केवल अकबर में पाई जाती है, जिसमें नई नीति को चलाने तथा ऐसे कानून बनाने की क्षमता थी, जो उस काम के तथा भावी पीढ़ी के जीवन तथा विचारों को बदल सकते थे।
राय चौधरी और आर०सी० मजूमदार के अनुसार – “अपनी शक्ति तथा चरित्र-बल के बावजूद औरंगजेब भारत के शासक के रूप में असफल सिद्ध हुआ। उसने यह नहीं समझा कि किसी साम्राज्य की महत्ता उसके अधिकाधिक जनसाधारण की प्रगति पर निर्भर है। अपनी धार्मिक उमंग की प्रबलता के कारण उसने जनता के महत्वपूर्ण वर्गों की उपेक्षा की और इस प्रकार अपने साम्राज्य की विरोधी शक्तियों को उभारा।।
बर्नियर के अनुसार – “औरंगजेब एक राजनीतिज्ञ, एक महान् सम्राट तथा अद्भुत प्रतिभा का धनी व्यक्ति था।” औरंगजेब को निश्चय ही मुगल साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी माना जा सकता है। यद्यपि पूर्ण रूप से नहीं तथापि मुगल वंश का पतन अधिकतर उसकी नीतियों का ही परिणाम था, क्योंकि वह किसी का भी हृदय जीतने में असफल रहा। औरंगजेब की निम्नलिखित नीतियाँ मुगल साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी हैं
1. राजपूत विरोधी नीति- केवल राजपूतों को ही नहीं वरन् अन्य सहायकों को भी अपनी अनुदार तथा संकीर्ण नीति के कारण औरंगजेब ने अपना विरोधी बना लिया। सिक्ख, जाट, बुन्देले, मराठे सभी उसकी नीति से असन्तुष्ट होकर मुगल साम्राज्य के विनाश के लिए प्रयासरत रहने लगे। मराठों ने दक्षिण में लूटमार मचा दी, जाटों ने मथुरा के आस-पास के प्रदेशों को उजाड़ा तथा गुरु गोविन्द सिंह के नेतृत्व में सिक्ख उसे जीवनभर परेशान करते रहे। इन विद्रोहों ने मुगल वंश का पतन निकट ला दिया।
2. दक्षिण – नीति की विफलता- औरंगजेब की दक्षिण-नीति ने राजकोष पर बुरा प्रभाव डाला। विशाल सेना होने के कारण आय का अधिकांश भाग केवल सेना पर व्यय होने लगा, जिससे अन्य दिशाओं में प्रगति अवरुद्ध हो गई। इसी कारण सम्राट शान्ति तथा व्यवस्था बनाए रखने में असफल रहा। दक्षिण में शिया राज्यों को जीत लेने के साथ ही विकासोन्मुख मराठा शक्ति का सामना करने के लिए मुगलों को संघर्षरत होना पड़ा। मराठों की छापामार रण-पद्धति के सम्मुख मुगलों की विशाल सेना कुछ भी नहीं कर सकती थी। मराठों की सेना मुगल सेना एवं उनके प्रदेशों को अवसर पाते ही लूट लेती थी। इस प्रकार मराठों ने मुगलों का पतन और भी सन्निकट ला दिया।
3. पुत्रों को शिक्षित न बनाने का संकल्प – यद्यपि औरंगजेब धर्मान्ध तथा अनुदार था तथापि उसमें योग्यता का अभाव नहीं था। उसके पिता ने उसे उच्चकोटि की शिक्षा प्रदान की थी तथा सम्राट बनने से पूर्व उसने शासन-प्रबन्ध का पर्याप्त अनुभव भी प्राप्त कर लिया था। इसलिए विद्रोहों तथा संकटों के उपरान्त भी उसने राज्य को अपने हाथ से नहीं जाने दिया। वह शंकालु प्रकृति का था तथा उसे भय था कि उसके पुत्र योग्य बनकर कहीं उसके विरुद्ध विद्रोह न कर दें, जैसा कि उसने स्वयं अपने पिता के विरुद्ध किया था। उसने केवल शहजादे अकबर को व्यवहारिक शिक्षा देने का प्रयास किया था। शहजादे अकबर के विद्रोह के पश्चात् अपने अन्य शहजादों के प्रति सम्राट और भी सतर्क हो गया तथा उसने उन्हें कभी भी कोई महत्वपूर्ण प्रशासनिक भार सँभालने का अवसर नहीं दिया। उसने अपने पुत्रों पर भी कभी विश्वास नहीं किया तथा 90 वर्ष की वृद्धावस्था में भी लकड़ी के सहारे चलकर वह स्वयं सैन्य संचालन करता था। उसकी इसी नीति के कारण अनुभव से वंचित उसके उत्तराधिकारी विशाल साम्राज्य को सँभाल पाने में असमर्थ रहे।
4. शासन का केन्द्रीकरण – शंकालु प्रकृति के कारण औरंगजेब ने शासन की बागडोर पूर्णतया अपने हाथ में रखी। दक्षिण की विजयों के कारण मुगल साम्राज्य काफी विशाल हो गया था तथा एक व्यक्ति और एक केन्द्र से उसका समुचित संचालन असम्भव हो गया था। सम्राट के स्वभाव के कारण सूबेदार अनुत्तरदायी हो गए तथा प्रजा पर अत्याचार करने लगे। उनके अधिकारों को छीनकर सम्राट ने शासन-व्यवस्था को दोषपूर्ण बना दिया। जब तक सम्राट शक्तिशाली रहा तब तक तो शासन सुचारु रूप से चलता रहा, परन्तु जैसे-जैसे वह वृद्ध होता गया उसकी कार्य करने की शक्ति क्षीण होने लगी तथा प्रान्तों पर से उसका अंकुश ढीला पड़ने लगा। दूरस्थ प्रान्तों के सूबेदार उसके नियन्त्रण से बाहर होने लगे तथा विद्रोह करने को तत्पर हो गए।
5. शासन-व्यवस्था की शिथिलता – यद्यपि औरंगजेब साम्राज्य के छोटे-छोटे कार्यों का निरीक्षण भी स्वयं करता था परन्तु वह देश में शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित करने में असफल रहा। यद्यपि वह कुशल शासक था परन्तु उसकी यह धारणा बन गई थी कि वह स्वयं सबसे अधिक योग्य है। वह अपने बड़े-से-बड़े पदाधिकारी पर भी सन्देह करता था। ईर्ष्या और सन्देह की मात्रा उसमें इतनी प्रबल थी कि उसने सभी पर सन्देहपूर्ण दृष्टि रखनी आरम्भ कर दी थी। शासन-व्यवस्था में योग्य-से-योग्य व्यक्तियों के परामर्श की भी वह अवहेलना करने लगा था। इस सन्देहपूर्ण नीति का दुष्प्रभाव जनता पर पड़ा, जिससे शान्ति एवं समृद्धि का युग समाप्त हो गया।
6. धर्मान्धता एवं असहिष्णुता की नीति – सम्राट के रूप में औरंगजेब का आदर्श संकीर्ण एवं अनुदार था। वह मुसलमानों की रक्षा करना अपना कर्त्तव्य समझता था जबकि हिन्दुओं के प्रति उसकी नीति अत्याचारपूर्ण थी। वह बलपूर्वक इस्लाम धर्म का प्रचार करना अपना कर्तव्य समझता था। इस्लाम स्वीकार न करने पर वह हिन्दुओं को प्राणदण्ड तक दे देता था। भारत जैसे देश के लिए, जहाँ 80 प्रतिशत जनता हिन्दू थी, इस प्रकार की नीति अहितकर तथा घातक सिद्ध हुई। हिन्दुओं ने सम्राट के कठोर अत्याचार सहन किए,
परन्तु धर्म परिवर्तन के लिए वे तैयार नहीं हुए। सम्राट ने जितने अधिक अत्याचार किए, उतनी ही अधिक विद्रोह की प्रवृत्ति हिन्दुओं में उत्पन्न हुई। इस प्रकार औरंगजेब की नीति मुगल साम्राज्य के लिए घातक सिद्ध हुई। औरंगजेब ने हिन्दुओं के प्रति ही नहीं, शियाओं के प्रति भी अनुदारतापूर्ण नीति अपनाई तथा योग्य एवं प्रतिभाशाली शियाओं की सेवाओं से साम्राज्य को वंचित कर दिया। उसकी इस धार्मिक नीति का परिणाम यह हुआ कि उसकी मृत्यु के 10-15 वर्ष पश्चात् ही मुगल साम्राज्य टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर गया। औरंगजेब की इस धर्मान्धता का मुगल साम्राज्य पर अत्यन्त घातक प्रभाव पड़ा।
7. आर्थिक तथा सांस्कृतिक विकास का अन्त – औरंगजेब धर्म का अन्धा अनुयायी था तथा कुरान के अनुसार चलने के कारण ललित कलाओं का पोषण नहीं कर सकता था। उसे न संगीत में अभिरुचि थी, न चित्रकला में और न भवननिर्माण-कला में। फलतः इन सभी ललित कलाओं का पतन उसके काल में हो गया। विद्वान होने पर भी साहित्यकारों को आश्रय देने में उसकी रुचि नहीं थी। फलतः सांस्कृतिक विकास के क्षेत्र में अरुचि के कारण औरंगजेब का युग संस्कृति के पूर्ण पतन का युग था।