मुगल साम्राज्य के पतन के लिए मुख्य रूप से निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे
1. औरंगजेब का उत्तरदायित्व- औरंगजेब को एक राजा और राजनीतिज्ञ के रूप में असफल व्यक्ति कहा जा सकता है। चाहे-अनचाहे उसकी नीतियों ने मुगल साम्राज्य के विघटन और पतन की प्रक्रिया आरम्भ कर दी। उसकी धार्मिक नीति ने, जिसे उसने राजनीतिक और आर्थिक कारणों से प्रभावित होकर लागू किया था, बहुसंख्यक हिन्दुओं के मन में प्रतिक्रिया उत्पन्न कर दी। उसने अपनी धर्मान्धता का परिचय देते हुए हिन्दुओं पर जजिया कर लगाया, जिससे वे उसे केवल मुसलमानों का ही सम्राट मानने लगे और उसका विरोध करने की प्रवृत्ति उनमें तीव्र हो गई।
धर्म को ही आधार बनाकर जाटों, सतनामियों, सिक्खों, राजपूतों, मराठों, यहाँ तक कि दक्कन की शिया रियासतों ने भी क्षेत्रीय स्वतन्त्रता के लिए प्रयत्न आरम्भ कर दिए और मुगलों को परेशान करने लगे। इन शक्तियों को दबाने में औरंगजेब की शक्ति एवं प्रतिष्ठा नष्ट हो गई, फिर भी इन पर पूर्ण नियन्त्रण स्थापित नहीं किया जा सका। इस प्रकार हिन्दुओं का समर्थन और सहयोग खोना औरंगजेब की एक बहुत बड़ी राजनीतिक भूल थी। औरंगजेब की दूसरी बड़ी भूल राजपूतों का सहयोग खोना था। भारत में मुगल सत्ता के स्थाई स्तम्भ राजपूत ही थे।
किन्तु इस स्तम्भ को औरंगजेब ने अपनी राजनीतिक अदूरदर्शिता एवं धार्मिक कट्टरपन से खो दिया। इसी प्रकार औरंगजेब ने गुरु तेगबहादुर का वध करवाकर सिक्खों को मुगल साम्राज्य के विरुद्ध खड़ा कर दिया। औरंगजेब की दक्षिण-नीति ने भी मुगल साम्राज्य के पतन में योगदान दिया। उसने बीजापुर और गोलकुण्डा को मुगल साम्राज्य में मिलाने की बड़ी राजनीतिक भूल की। इन दोनों राज्यों की समाप्ति के बाद दक्षिण में मराठों पर से सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थानीय नियन्त्रण समाप्त हो गया। इस प्रकार मराठों को संगठित एवं शक्तिशाली होने का एक और अवसर मिल गया। औरंगजेब की दक्षिण की यह मूर्खतापूर्ण नीति करीब 25 वर्ष तक चलती रही। इस लम्बी अवधि के दौरान अपार धन, जन एवं सेना का ह्रास हुआ, साथ ही उत्तर भारत की शासन-व्यवस्था भी कमजोर पड़ गई। इस अवसर का लाभ उठाकर अनेक प्रान्तीय सुल्तानों ने अपने आप को स्वतन्त्र घोषित कर दिया।
2. औरंगजेब के अयोग्य उत्तराधिकारी- मध्ययुगीन साम्राज्य मात्र सम्राटों की योग्यता पर टिका रहता था, किन्तु दुर्भाग्य से औरंगजेब के बाद के मुगल सम्राट न तो योग्य थे और न चरित्रवान। वे अब तलवार से अधिक स्त्री और शराब को प्यार करने लगे थे। औरंगजेब का उत्तराधिकारी बहादुरशाह शाह-ए-बेखबर’ कहलाता था। डॉ० श्रीराम शर्मा के मतानुसार, “कामबख्श ने बन्दीगृह में मृत्यु-शैय्या पर इस बात का तो पश्चाताप किया कि तैमूर का वंशज जीवित ही पकड़ा गया। किन्तु जहाँदारशाह और अहमदशाह को अपनी रखैलों के बाहु-बन्धनों में फंसे हुए कर्तव्य-विमुख अवस्था में बन्दी बनाए जाने पर तनिक भी लज्जा नहीं आई।” इस प्रकार बहादुरशाह प्रथम से लेकर बहादुरशाह जफर तक के सभी शासकों में चारित्रिक, राजनीतिक, सैनिक अथवा प्रशासनिक क्षमता नहीं थी। ऐसी स्थिति में मुगल साम्राज्य का पतन होना स्वाभाविक था।।
3. मुगलों में उत्तराधिकार के नियम का अभाव- मुगलों में राजगद्दी के लिए उत्तराधिकार का कोई नियम न था। प्रसिद्ध लेखक अस्कीन के अनुसार, “तलवार ही उत्तराधिकार की एक मात्र निर्णायक थी। प्रत्येक राजकुमार अपने भाइयों के विरुद्ध अपना भाग्य आजमाने को उद्यत रहता था। औरंगजेब द्वारा किया गया उत्तराधिकार का युद्ध इसका उदाहरण है। वस्तुतः मुगलों में बादशाह के जीवनकाल में ही अथवा उसकी मृत्यु के पश्चात् गद्दी के महत्वाकांक्षी दावेदारों में संघर्ष हो जाता था। इस संघर्ष में मुगल अमीर, दरबारी, सूबेदार, जागीरदार, मनसूबदार यहाँ तक की महल की स्त्रियाँ तक भाग लेती थीं। इन संघर्षों से धीरे-धीरे मुगलों की प्रतिष्ठा, शक्ति, धन एवं जन की अपार क्षति हुई। इन संघर्षों ने मुगल साम्राज्य के पतन की पृष्ठभूमि तैयार कर दी।
4. मुगल सामन्तों का नैतिक पतन- मुगल सम्राट ही नहीं अपितु उनके सामन्तों का भी नैतिक पतन हो गया था। मुगल सामन्तों के जीवन में शराब, स्त्री, षड्यन्त्र, स्वार्थ, पद-लोलुपता का ही स्थान रह गया था। जदुनाथ सरकार के मतानुसार, कोई भी मुगल सामन्त एक या दो पीढ़ियों से अधिक समय तक अपना महत्व बनाए नहीं रख सका। यदि किसी सामन्त की वीरता के विषय में इतिहासकार ने तीन पृष्ठ लिखे तो उसके पुत्र के कार्यों का वर्णन केवल एक ही पृष्ठ में हुआ और उसके पौत्र का वर्णन केवल इस प्रकार के शब्दों में कि ‘उसने कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया’ समाप्त हो जाता।” अत: सामन्तों के उत्तरोत्तर नैतिक पतन ने मुगल साम्राज्य को काफी क्षति पहुँचाई।
5. जागीरदारी संकट- डॉ० सतीशचन्द ने मुगल साम्राज्य के पतन के लिए मनसबदारी और जागीरदारी प्रथाओं की असफलता को जिम्मेदार बताया है। उनके अनुसार औरंगजेब के समय से ही युद्धों, प्रशासन-व्ययों और बादशाह तथा अमीर वर्ग की बढ़ती हुई आवश्यकताओं की पूर्ति किया जाना कठिन हो गया था। आय का प्रमुख साधन भूमि थी, जो व्यय में वृद्धि के अनुपात में कम थी। अतः राज्य और प्रशासक वर्ग की आय और उनके व्यय के बीच अन्तर बढ़ता गया और जागीरदारी या मनसबदारी व्यवस्था के दोष सामने आने लगे। औरंगजेब की दक्षिण विजय ने इस संकट में और वृद्धि की। अब स्थिति यह हो गई कि जागीरे कम हो गईं और उनके माँगने वाले अधिक, जिससे जागीरदारी पाने वाले वर्ग में अच्छी जागीर प्राप्त करने की प्रतिद्वन्द्विता बढ़ गई। इस प्रतिद्वन्द्विता और संकट को एक अन्य प्रकार से भी बढ़ावा मिला।
कागजों में जागीरों से प्राप्त होने वाली आय को बहुत पहले से वास्तविक आय से अधिक दिखाया जाता रहा था। ऐसी स्थिति में जागीर प्राप्त वर्ग ने अच्छी आय वाली जागीरों को प्राप्त करने का प्रयत्न किया। इससे दरबार में दलबन्दी बढ़ने लगी। जागीरदारों ने भूमि को ठेकेदारों को देना शुरू कर दिया। ठेकेदार किसानों से अधिकतम लगान वसूलते थे। इससे किसानों ने लगान देना बन्द कर दिया और स्थानीय जमींदारों के माध्यम से विद्रोह कर दिया। अब मुगलों की आर्थिक, राजनीतिक और सैनिक-शक्ति टूटती चली गई क्योंकि यह सब भूमि से प्राप्त आय पर ही निर्भर था। प्रो० इरफान हबीब ने भी आर्थिक संकट को ही मुगल साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरादायी माना है।
6. मुगलों की सैन्य दुर्बलताएँ- सैन्य दुर्बलताओं ने भी मुगलों के पतन में महत्वपूर्ण योगदान दिया। मुगल सेना मनसबदारी व्यवस्था पर आधारित थी, परन्तु कालान्तर में यही व्यवस्था मुगल सेना की दुर्बलता का आधार बनी। उनकी सेना की स्वामिभक्ति सम्राट के प्रति नहीं रही। मुगल सेना में राष्ट्रीयता का भी सर्वथा अभाव था। मुगल सेना में अनुशासनहीनता एवं विलासिता भी प्रवेश कर गई थी। इसके अतिरिक्त गलत रणनीतियाँ, नौ सेना का अभाव, केवल मैदानी युद्धों में पारंगत होना, छापामार युद्ध से अनभिज्ञ होना इत्यादि कारणों ने मुगल सेना की क्षमता को नष्ट कर दिया। सर वूल्जले हेग ने लिखा है, “सेना की चरित्रहीनता ही साम्राज्य के पतन के मुख्य कारणों में से एक थी।’
7. बौद्धिक पतन- बौद्धिक पतन को भी मुगल साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी माना गया है। निश्चय ही मुगलों के अधिकांश शासनकाल में शिक्षा की व्यवस्था समुचित नहीं थी और जो थी भी वह समय के अनुकूल न रही। उसमें तकनीकी और वैज्ञानिक शिक्षा का पूर्णतः अभाव था और उदार मानवीय भावना के विकास में सहयोग देने में बहुत कमी थी। इस कारण प्रशासन में योग्य व्यक्तियों का अकाल सा पड़ गया। परिणामस्वरूप मुगल साम्राज्य पतन की ओर अग्रसर हो गया
8. मुगल साम्राज्य का आर्थिक दिवालियापन- कोई भी साम्राज्य सम्राट की योग्यता, सेना की सुदृढ़ता और राजकोष में पर्याप्त धन पर निर्भर करता है। मुगल साम्राज्य के पास इन तीनों का ही अभाव हो गया था। शाहजहाँ ने भवन निर्माण आदि कार्यों में प्रचुर मात्रा में धन व्यय किया। औरंगजेब ने दक्षिण के दीर्घकालीन युद्धों में न केवल राजकोष को ही खाली किया बल्कि देश के व्यापार एवं उद्योगों को भी नष्ट किया। सर जदुनाथ सरकार के अनुसार, “एक बार तो मुगल जनानखाने में तीन दिन तक चूल्हे में आग नहीं जली। शहजादियाँ अधिक समय तक भूख सहन नहीं कर सकीं और पर्दे की परवाह न करते हुए महल से निकलकर शहर की ओर दौड़ पड़ीं।” जिस शासन की हालत इतनी गिर जाए, फिर वह अधिक समय तक किस प्रकार चल सकता था।
9. नौसेना का अभाव- नौसेना का अभाव अप्रत्यक्ष रूप से मुगल साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी कारण माना जाता है। नौसेना के अभाव से उत्पन्न दुर्बलता उस समय प्रकट हुई जब 16 वीं सदी में यूरोप के निवासी भारत आए और समुद्र पर अधिकार स्थापित करके उन्होंने भारत के विदेशी व्यापार पर नियन्त्रण स्थापित किया। व्यापारिक दृष्टि से यूरोपियनों पर निर्भरता ने भारतीय शासकों को उन्हें व्यापारिक सुविधाएँ देने के लिए बाध्य किया, जिससे अन्त में उनमें से एक को। (अंग्रेजों को ) भारत में राज्य स्थापित करने का अवसर मिला।
10. मुगल साम्राज्य की विशालता और मराठों का उत्कर्ष- औरंगजेब के काल में मुगल साम्राज्य का विस्तार बहुत विस्तृत हो गया था। एक व्यक्ति के लिए एक केन्द्र से इस विशाल साम्राज्य को सम्भालना मुश्किल था। औरंगजेब दक्षिण में मराठों से उलझकर असफल हो गया। मराठों के उत्कर्ष ने मुगल साम्राज्य को बौना और असहाय कर दिया और इसकी प्रतिष्ठा को धूल में मिला दिया। इस विशाल साम्राज्य में कुछ समय पश्चात् ही विभिन्न शक्तियाँ मुगल साम्राज्य से अलग हो गई और मुगल साम्राज्य का विघटन शुरू हो गया।
11. दरबार में गुटबाजी- औरंगजेब के पश्चात् मुगल दरबार आपसी गुटबन्दी का अड्डा बन गया। आसफजहाँ निजामुलमुल्क, कमरूद्दीन, जकरिया खाँ, अमीर खाँ और सआदत खाँ प्रमुख गुटों के नेता थे। इन गुटों में अक्सर युद्ध होते रहते थे। इस प्रकार जहाँ औरंगजेब के पूर्व दरबारियों और सरदारों जैसे महावत खाँ, अब्दुर्रहीम खानखाना, बीरबल, सादुल्ला खाँ, मीर जुमला आदि ने साम्राज्य के हितों की सुरक्षा की थी, वहीं बाद के सरदारों ने अपने स्वार्थ में अन्धा होकर बादशाह और साम्राज्य दोनों को क्षति पहुँचाई।
12. नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण- मुगल साम्राज्य की रही-सही प्रतिष्ठा को इन दोनों विदेशी आक्रमणकारियों ने समाप्त कर दिया। नादिरशाह ने 1739 ई० में मुगल सम्राट को दिल्ली में कैद कर लिया और दिल्ली को जमकर लूटा तथा राजकोष में जितना भी धन, हीरे-जवाहरात व वस्तुएँ थीं सब अपने साथ ले गया। बची-खुची इज्जत को अहमदशाह अब्दाली ने 1761 ई० में समाप्त कर दिया और पानीपत के तीसरे युद्ध में उसने मुगल साम्राज्य के साथ मराठों की प्रतिष्ठा को भी धूल में मिला दिया।
13. यूरोपवासियोंका आगमन- 1600 ई० में स्थापित ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत में व्यापार के नाम पर धीरे-धीरे अपने राजनीतिक पैर पसारने शुरू कर दिए। 18 वीं शताब्दी के मध्य तक कम्पनी ने यूरोप से आने वाली दूसरी शक्तियों को भारत से निकाल दिया। 1757 और 1761 ई० के क्रमश: प्लासी और बक्सर के युद्धों के बाद ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी बंगाल, बिहार और उड़ीसा (ओडिशा) की स्वामी बन गई। इस प्रकार अंग्रेजों के बढ़ते राजनीतिक प्रभाव ने मुगल शक्ति और प्रतिष्ठा को नष्ट करना प्रारम्भ कर दिया और अन्तत: 1857 ई० में अंग्रेजों ने ही मुगलों के शासन का हमेशा के लिए अन्त कर दिया।