(क) केन्द्रीय प्रशासन
1. राजा- मध्ययुग के अन्य शासकों की भाँति शिवाजी एक सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न निरकुंश शासक थे। राज्य की सम्पूर्ण शक्तियाँ उनमें केन्द्रित थीं। उनके अधिकार असीमित थे। वहीं राज्य के प्रशासकीय प्रधान, मुख्य न्यायधीश, कानून निर्माता और सेनापति थे। परन्तु शिवाजी ने अपनी शक्तियों का प्रयोग निरंकुश तानाशाही के लिए नहीं किया बल्कि जनहितार्थ किया। इतिहासकार रानाडे के शब्दों में, “शिवाजी नेपोलियन की भाँति एक महान संगठनकर्ता और असैनिक प्रशासन के निर्माणकर्ता थे।’
2. अष्टप्रधान- शिवाजी की सहायता के लिए आठ मन्त्रियों की एक परिषद् होती थी जो ‘अष्टप्रधान’ के नाम से सम्बोधित की जाती थी। केवल सेनापति के अतिरिक्त अन्य सभी मन्त्रिगण ब्राह्मण होते थे, जिनकी नियुक्ति सम्राट द्वारा की जाती थी तथा वे सम्राट के प्रति ही उत्तरदायी थे। इन मन्त्रियों से कार्य कराने का भार भी स्वयं सम्राट पर ही था।
शिवाजी ने इन मन्त्रियों को अपने विभागों में पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान नहीं की थी वरन् सरलतापूर्वक कार्य विभाजन के लिए इन मन्त्रियों की नियुक्ति की जाती थी, जिनके निरीक्षण एवं निर्देशन का भार शिवाजी पर ही था। आठ में से छह मन्त्रियों को समय पड़ने पर युद्धभूमि में जाना पड़ता था। शिवाजी यद्यपि इन मन्त्रियों से इनके विभागीय कार्यों के लिए परामर्श लेते थे, किन्तु उनको मानने के लिए वे बाध्य नहीं थे वरन् जिस बात को वे उचित समझते थे, वही करते थे। इस प्रकार का निरंकुश शासन तभी तक सफल रह सकता था, जब तक कि राजा योग्य हो। शिवाजी की मन्त्रिपरिषद् में निम्नलिखित पद थे
⦁ प्रधानमन्त्री एवं पेशवा- मुगल सम्राटों के वजीर के समान शिवाजी के राज्य में पेशवा का स्थान था। वह अन्य सभी विभागों तथा मन्त्रियों पर निगरानी रखता था तथा राजा की अनपुस्थिति में राज्य के कार्यों की देखभाल करता था। राजकीय पत्रों पर राजा की मुहर के नीचे उसकी मुहर होती थी तथा प्रजा की सुख सुविधाओं का ध्यान रखना उसका कर्तव्य था।
⦁ मजमुआदार अथवा अमात्य- आय तथा व्यय का निरीक्षण करना तथा सम्पूर्ण राज्य की आय का ब्यौरा रखना अमात्य का कार्य होता था।
⦁ वाकयानवीस अथवा मन्त्री- राजदरबार में घटित होने वाली घटनाओं तथा राजा के कार्यों का ब्यौरा रखना मन्त्री का कार्य था। वह राजा के विरुद्ध रचित षड्यन्त्रों एवं कुचक्रों का पता लगाता था, उसके खाने-पीने की वस्तओं का निरीक्षण करता था तथा राजमहल का प्रबन्ध करता था।
⦁ सचिव- सम्राट के पत्र-व्यवहार का निरीक्षण करना सचिव का कार्य था। सचिव महल तथा परगनों के लेखों का निरीक्षण करता था तथा राज्य के पत्रों पर मुहर लगाता था।
⦁ सुमन्त- बाह्य नीति में राजा को परामर्श देने वाला मन्त्री सुमन्त कहलाता था। अन्य राजाओं के राजदूतों से भेंट करना तथा पड़ोसी राज्यों में घटित होने वाली घटनाओं की सूचना भी उसे रखनी पड़ती थी।
⦁ सेनापति- सेना का अध्यक्ष सेनापति होता था, जिसका कार्य सैनिकों की भर्ती करना, सैन्य-व्यवस्था करना, सैनिकों को प्रशिक्षण देना तथा सेना में अनुशासन बनाए रखना होता था। युद्धभूमि में भेजने के लिए वह
सैनिकों का चयन भी करता था।
⦁ पण्डितराव अथवा दानाध्यक्ष- धार्मिक कार्यों के लिए दान, धार्मिक उत्सवों का प्रबन्ध, ब्राह्मणों को दान देना तथा धर्म विरोधियों को दण्ड देना पण्डितराव अथवा दानाध्यक्ष का कर्तव्य था। वह जन-आचरण निरीक्षण विभाग का प्रधान होता था। धर्म-संस्थाओं तथा साधु-सन्तों को दान देने के विषय में भी वही निर्णय लेता था।
⦁ न्यायाधीश- दीवानी, फौजदारी तथा सैन्य सम्बन्धी झगड़ों का निर्णय करने के लिए न्यायाधीश सबसे बड़ा अधिकारी होता था। यह न्यायाधीश प्रायः हिन्दू रीति-रिवाजों एवं प्राचीन धर्मशास्त्रों के आधार पर निर्णय करता था।
अष्टप्रधान की स्थापना का निर्णय शिवाजी ने एक समय पर अथवा अपने राज्याभिषेक के समय नहीं किया वरन् इसका विकास क्रमशः हुआ तथा शिवाजी आवश्यकता के अनुसार इन मन्त्रिगणों की संख्या में वृद्धि करते रहे। अन्त में उनकी अष्टप्रधान सभा का पूर्ण विकसित रूप उनके ‘छत्रपति बनने के पश्चात ही दृष्टिगोचर हुआ।
(ख) सैन्य प्रशासन- शिवाजी ने सेना के बल पर ही एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया था तथा साम्राज्य की सुरक्षा के लिए उन्होंने एक सुव्यवस्थित एवं सुदृढ़ सेना का संगठन किया। शिवाजी के पास एक स्थायी सेना थी, जिसमें 10000 पैदल, 30000 से लेकर 45000 तक घुड़सवार, 1160 हाथी, लगभग 3000 ऊँट और 500 तोपें थीं। उनकी मृत्यु के समय उनकी अनुशासित एवं व्यवस्थित सेना की संख्या 1 लाख थी, जिसमें, 20000 मावले पैदल सैनिक, 45000 राज्य के घुड़सवार तथा 60000 सिलहदार थे। उनके पास लगभग 3000 हाथी तथा 32000 घोड़े इसके अतिरिक्त थे।
शिवाजी से पूर्व सैनिक 6 महीने कृषि करते थे तथा 6 महीने सेना में रहते थे परन्तु शिवाजी ने स्थायी सेना की व्यवस्था की तथा विश्रृंखलित मराठों को एकत्रित करके एक राष्ट्रीय सेना का रूप प्रदान किया। जागीरदारी प्रथा को हटाकर उन्होंने सैनिकों को नकद वेतन देने की व्यवस्था की, जिससे सम्राट तथा सेना में प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित हो सका तथा शिवाजी के मराठा सैनिक अपने नेता के इशारे पर प्राण न्योछावर करने को प्रस्तुत रहने लगे। घोड़े दगवाने तथा घुड़सवारों का हुलिया लिखवाने की प्रथा को प्रचलित किया गया। उनकी सेना में हिन्दू तथा मुसलमान दोनों वर्गों के व्यक्तियों को समान रूप से स्थान प्राप्त था तथा अनेक मुसलमान सैनिकों ने बड़ी स्वामीभक्ति के साथ उत्कृष्ट कार्य किए थे।
1. सेना में अनुशासन की व्यवस्था- शिवाजी ने अपनी सेना में कठोर अनुशासन की व्यवस्था की थी। सेना को उसका पालन करना अनिवार्य था अन्यथा उन्हें कठोर दण्ड के लिए तैयार रहना पड़ता था। इसका प्रभाव सेना पर यह हुआ कि सेना हमेशा अनुशासित रहती थी। वर्षा ऋतु के पश्चात् सैनिक मुगल प्रदेशों पर आक्रमण करके उनसे चौथ व सरदेशमुखी कर वसूलते थे। शिवाजी के आदेशानुसार शत्रु-पक्ष के बच्चों व स्त्रियों पर अत्याचार करने की बिल्कुल मनाही थी। उन्हें सम्मानपूर्वक वापस भेजने की व्यवस्था थी। सैनिक राज्य के कृषक व ब्राह्मणों पर बिलकुल भी अत्याचार नहीं कर सकते थे। लूटे गए माल को सम्पूर्ण रूप से पदाधिकारियों को देने का आदेश था, जिसे शिवाजी के राजकोष में संगृहीत कर दिया जाता था। नियमित वेतन के अलावा सैनिक किसी से भी रिश्वत नहीं ले सकता था अन्यथा कठोर दण्ड मिलता था। शिवाजी अपने नियमों को कठोरतापूर्वक पालन करवाते थे।
2. घुड़सवार सेना- किसी भी राजा की प्रमुख सेना घुड़सवार सेना होती है। यह सेना का प्रमुख अंग होती है। शिवाजी की भी सेना का मुख्य अंग घुड़सवार सेना थी। इसके दो भाग थे- बारगीर व सिलहदार। बारगीर वर्ग के सैनिकों को राज्य की ओर से घोड़े व अस्त्र-शस्त्रों की व्यवस्था थी परन्तु सिलहदारों को अस्त-शस्त्र व घोड़े खरीदने पड़ते थे। इसके लिए उन्हें एक निश्चित धनराशि दी जाती थी। बारगीर मासिक वेतन प्राप्त करते थे। 25 घुड़सवारों पर 1 हवलदार, 5 हवलदारों पर एक जुमलादार तथा 10 जुमलादारों पर एक हजारी होता था, जिसे 1 हजार हून वार्षिक मिलते थे। सर-ए-नौबत या सेनापति घुड़सवारों का प्रधान था।
3. पैदल सेना- सेना की दूसरी प्रमुख शाखा पैदल सेना थी। पैदल सेना का भी विभाजन घुड़सवार सेना के समान था। साधारण सैनिक नायक के अधीन होते थे। 5 नायकों पर 1 हवलदार, 5 हवलदारों पर 1 जुमलादार, 10 जुमलादारों पर 1 हजारी तथा 7 हजारियों पर सर-ए-नौबत अथवा सेनापति होता था। शिवाजी के पास 20,000 मावलों की अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित, अनुशासित एवं सुव्यवस्थित सेना थी।
4. जलसेना- शिवाजी ने एक जलसेना का भी संगठन किया, जिससे जंजीरा के अबीसीनियन सिद्दियों को भी पराजित किया जा सके। सन् 1680 ई० में उन्होंने एक युद्ध में शत्रु पक्ष को बुरी तरह पराजित भी किया था। कोलाबा उनकी जलसेना का प्रमुख अड्डा था, जिसमें शिवाजी की 200 जहाजों की सेना रहती थी। जहाजी बेड़े का संचालन अधिकांशतः मुसलमान पदाधिकारियों के हाथ में था। लेकिन शिवाजी की जलसेना अधिक शक्तिशाली अथवा कुशल नहीं थी। फिर भी शिवाजी के पश्चात भी आंग्रे के अधीन मराठों की जल-सेना 18 वीं शताब्दी तक अंग्रेजों एवं पुर्तगालियों के लिए भय का कारण बनी रही।
5. युद्ध-पद्धति- शिवाजी ने मुगलों से सर्वथा भिन्न युद्ध-पद्धति को अपनाया। मुगल सेनापति तथा अन्य पदाधिकारी अत्यन्त विलासी होते थे। वे युद्धभूमि में भी भारी सामान के साथ चलते थे तथा युद्ध में विजय प्राप्त करने की अपेक्षा उन्हें निजी स्वार्थ का अधिक ध्यान रहता था। इसके विपरीत, मराठा सैनिकों को कष्ट सहन करने की आदत डाली जाती थी। वे टट्टओं पर सवार होकर मुट्ठी भर चने के साथ सरदार की आज्ञा प्राप्त होते ही चल पड़ते थे तथा उनको एकत्रित होने में विलम्ब नहीं लगता था। छोटी-छोटी टुकड़ियाँ होने के कारण उनके सैन्य-संचालन में विशेष असुविधा नहीं होती थी। उनके अस्त्र-शस्त्र भी हल्के होते थे तथा सामान न के बराबर होता था। महाराष्ट्र की प्राकृतिक स्थिति छापामार रण-पद्धति के सर्वथा अनुकूल थी तथा इसी पद्धति के कारण शिवाजी मुगल साम्राज्य के विरुद्ध अपना एक स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने में सफल हो सके।
6. दुर्गों की व्यवस्था- शिवाजी ने दुर्गों के महत्व पर अत्यधिक बल दिया था। दुर्ग शत्रु आक्रमणकारियों से सुरक्षित रहने के महत्वपूर्ण साधन थे। मराठा सैनिक दुर्गों की रक्षा करना अपना परम कर्तव्य समझते थे तथा माता के समान उनकी पूजा करते थे। दुर्गों के निकटवर्ती प्रदेशों के निवासियों को संकटकाल में दुर्गों में ही शरण प्राप्त होती थी। शिवाजी के राज्य में 240 दुर्ग थे। उन्होंने कुछ नए दुर्गों का भी निर्माण करवाया तथा प्राचीन दुर्गों का जीर्णोद्वार करवाकर उन्हें सुदृढ़ बनवाया। प्रत्येक महत्वपूर्ण घाटी अथवा पहाड़ी पर उन्होंने सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया, जो मराठा सैनिकों की रक्षा करने के लिए उत्तम शरणस्थल थे।
शिवाजी के राज्य की जीवन-शक्ति यही दुर्ग थे। उन्होंने प्रत्येक दुर्ग की सुरक्षा के लिए तीन पदाधिकारियोंहवलदार, सबनीस तथा सर-ए-नौबत की नियुक्ति की। ये तीनों पदाधिकारी भिन्न-भिन्न जातियों के होते थे, जिससे कि विश्वासघात न कर सकें। दुर्ग की चाबियाँ हवलदार के पास रहती थीं, जो दुर्ग की सेना का प्रधान अधिकारी होता था। शासन तथा मालगुजारी का प्रबन्ध ब्राह्मण सबनीस करता था तथा किलेदार अर्थात् दुर्ग का सर-ए-नौबत खाने-पीने का सामान तथा घोड़ों के लिए दाने आदि की व्यवस्था करता था। ये तीनों पदाधिकारी समान पद के होते थे तथा एक-दूसरे पर नियन्त्रण रखते थे। दुर्ग में स्थित सेना में जातियों का सम्मिश्रण कर दिया गया था। शिवाजी की दुर्ग व्यवस्था सर्वथा सराहनीय थी तथा पहाड़ियों में छापामार रण-पद्धति की सफलता इसी व्यवस्था पर निर्भर थी।
(ग) भूमि प्रशासन- सेना की ही तरह शिवाजी ने भूमिकर व्यवस्था के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण कार्य किए। प्रत्येक गाँव का क्षेत्रफल ब्यौरेवार रखा जाता था और प्रत्येक बीघे की उपज का अनुमान लगाया जाता था। उपज का 2/5 भाग राज्य को दिया जाता था। किसानों को बीज और पशुओं की सहायता दी जाती थी जिसका मूल्य सरकार कुछ किश्तों में वसूल कर लेती थी। भूमि कर नकद अथवा जिन्स के रूप में वसूला जाता था।
शिवाजी की लगान व्यवस्था रैयतवाड़ी थी जिसमें राज्य के किसानों से सीधा सम्पर्क स्थापित कर रखा था। शिवाजी नहीं चाहते थे कि जमींदार, देशमुख और देसाई किसानों में हस्तक्षेप करें। हरसम्भव वे लगान अधिकारियों को जागीर के बदले नकद वेतन ही दिया करते थे। वे जब कभी जागीर देते भी थे तो इस बात का विशेष ध्यान रखते थे कि जागीरदार अपनी जागीर में कोई राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित न कर सके।
शिवाजी की आय का मुख्य साधन चौथ था। यह पड़ोसी राज्यों की आय का चौथा भाग होता था जिसे वसूल करने के लिए शिवाजी उन पर आक्रमण करते थे। चौथ हर साल वसूल करते थे। शिवाजी की आय का दूसरा मुख्य साधन सरदेशमुखी थी। यह राज्यों की आय का 1/10 भाग होता था।