शिवाजी के चरित्र एवं शासन-प्रबन्ध का मूल्यांकन निम्नलिखित है
1. योग्य सेनापति- शिवाजी एक योग्य सेनापति थे। अपने देश की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुकूल उन्होंने गुरिल्ला युद्ध-पद्धति का प्रयोग किया और सुरक्षा के लिए अनेक दुर्गों का निर्माण कराया।
2. महान् शासक-प्रबन्धक- शिवाजी ने असैनिक और सैनिक दोनों ही प्रकार की शासन-व्यवस्था में महान् शासक प्रबन्धक होने का परिचय दिया। अष्टप्रधान व्यवस्था, उनकी लगान व्यवस्था, देशपाण्डे और देशमुख जैसे पैतृक पदाधिकारियों को बिना हटाए हुए उनकी शक्ति और प्रभाव को समाप्त करके किसानों से सीधा सम्पर्क स्थापित करना तथा ऐसे शासन की स्थापना करना जो उनकी अनुपस्थिति में भी सुचारु रूप से चल सके, ऐसी बातें थीं, जो उनके असैनिक शासन की श्रेष्ठता सिद्ध करती हैं। शिवाजी की घुड़सवार सेना और पैदल सैनिकों में पदों का विभाजन, ठीक समय पर वेतन देना, उनको योग्यतानुसार पद देना, गुरिल्ला युद्ध-पद्धति तथा किलों की सुरक्षा का प्रबन्ध आदि उनकी सैनिक व्यवस्था की श्रेष्ठता सिद्ध करते हैं। शिवाजी ने एक अच्छी नौसेना के निर्माण का भी प्रयत्न किया था। शिवाजी ने मराठी भाषा को राजभाषा बनाया था और एक राज्य व्यावहारिक संस्कृत कोष का भी निर्माण कराया था। इससे मराठी साहित्य के निर्माण में सहायता मिली थी।
3. हिन्दू राज्य के संस्थापक- शिवाजी ने एक स्वतन्त्र हिन्दू राज्य की स्थापना करने में सफलता पाई। उन्होंने ऐसी परिस्थितियों में हिन्दू राज्य का निर्माण किया, जबकि मुगल सम्राट औरंगजेब अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ मराठा राज्य को तो क्या दक्षिण के शिया राज्यों गोलकुण्डा और बीजापुर को भी समाप्त करने पर तुला हुआ था। इसके अतिरिक्त बीजापुर राज्य, पुर्तगालियों और जंजीरा के सिद्दियों का प्रबल विरोध होते हुए भी शिवाजी ने मराठा स्वराज्य की न केवल स्थापना की बल्कि जनता को सुरक्षा और शांति प्रदान की।
4. कुशल और साहसी सैनिक- शिवाजी एक कुशल और साहसी सैनिक थे। अनेक युद्धों में उन्होंने अपने जीवन को संकट में डाला था। अफजल खाँ से भेंट करना, शाइस्ता खाँ पर अचानक उसके शहर और निवास स्थान में प्रवेश करके आक्रमण करना, औरंगजेब से आगरा मिलने जाना उनके जीवन की ऐसी घटनाएँ हैं, जो यह सिद्ध करती हैं कि शिवाजी अपने जीवन को खतरे में डालने से कभी नहीं झिझके।। राष्ट्र निर्माता- शिवाजी का नवीनतम कार्य हिन्दू-मराठाराष्ट्र का निर्माण करना और उनकी महानतम् देन, उसको स्वतन्त्रता की भावना प्रदान करना था। गुलाम रहकर वे बड़ी-से-बड़ी प्रतिष्ठा को स्वीकार करने के लिए तत्पर न थे। अपने कार्य को उन्होंने बिना किसी विशेष सहायता के आरम्भ किया और यह अनुभव करके कि बढ़ती हुई मुस्लिम शक्ति का विरोध मराठों की एकता के बिना सम्भव नहीं है, उन्होंने मराठों को एकसूत्र में बाँधने का प्रयत्न किया। उन्हें रघुनाथ बल्लाल, समरजी पन्त, तानाजी मालसुरे, सन्ताजी घोरपड़े, खाण्डेराव दाभादे जैसे योग्य मराठा सरदारों का सहयोग मिला।
5. धार्मिक सहिष्णुता की प्रवृत्ति- शिवाजी की धार्मिक प्रवृत्ति एक पहाड़ी झरने की भाँति स्वच्छ जल को अविरल गति से बहाने वाली थी, जिसमें धर्मान्धता की गन्दगी न थी। उन्होंने सभी धर्मों का सम्मान किया और उनके साथ समान व्यवहार किया। धर्म, धार्मिक ग्रन्थ और कहानियाँ उनके प्रेरणा स्त्रोत थे।
महाराष्ट्र के तत्कालीन धार्मिक आन्दोलनों और सन्तों से वह प्रभावित हुए थे। शिवाजी पहले हिन्दू थे, जिन्होंने मध्य युग की बदलती हुई युद्ध की नैतिकता को समझा। उनके विरोधी इतिहासकार चाहे उन्हें डाकू कहें, चाहे विद्रोही सामन्त और चाहे औरंगजेब ने उनको ‘पहाड़ी चूहा’ कहकर अपनी सन्तुष्टि कर ली हो, परन्तु शिवाजी ने हिन्दू युद्ध-नीति की नैतिकता में एक नवीन अध्याय जोड़ा कि युद्ध जीतने के लिए लड़ा जाता है न कि शौर्य के प्रदर्शन के लिए। उनकी धार्मिक सहनशीलता आधुनिक समय के लिए भी उदाहरण स्वरूप है।
शिवाजी नि: सन्देह महान् थे। इतिहासकार सर जदुनाथ सरकार ने लिखा है, “मैं उन्हें हिन्दू जाति द्वारा उत्पन्न किया हुआ अन्तिम महान् क्रियात्मक व्यक्ति और राष्ट्र निर्माता मानता हूँ।” वे पुनः लिखते हैं, “शिवाजी ने यह सिद्ध कर दिखाया कि हिन्दुत्व का वृक्ष वास्तव में गिरा नहीं है बल्कि वह सदियों की राजनीतिक दासता, शासन से पृथकत्व और कानूनी अत्याचार के बावजूद भी पुनः उठ सकता है, उसमें नए पत्ते और शाखाएँ आ सकती हैं और एक बार फिर आकाश में सिर उठा सकता है। इस प्रकार शिवाजी ने मराठों को एक राष्ट्र के रूप में संगठित कर उनमें राष्ट्र-प्रेम की भावना को जगाने का महत्वपूर्ण कार्य किया।