भारत में सर्वप्रथम सन् 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई। अपने प्रारम्भिक रूप में यह नवशिक्षित, कामकाजी और व्यापारिक वर्गों का हित समूह भर थी, लेकिन 20वीं सदी में इसने जन-आन्दोलन का रूप धारण कर लिया और इसने एक जनव्यापी राजनीतिक पार्टी का रूप ले लिया। स्वतन्त्रता के बाद भारत के राजनीतिक परिदृश्य में कांग्रेस का वर्चस्व लगातार तीन दशकों तक कायम रहा।
भारत में एक दल की प्रधानता के कारण
भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् चुनावों में एक दल के प्रभुत्व के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-
1. कांग्रेस पार्टी को सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व प्राप्त था-कांग्रेस पार्टी के प्रभुत्व का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण यह था कि इसमें देश के सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व प्राप्त था। कांग्रेस पार्टी उदारवादी, गरमपन्थी, दक्षिणपन्थी, साम्यवादी तथा मध्यमार्गी नेताओं का एक महान मंच था जिसके कारण लोग इसी पार्टी को मत दिया करते थे।
2. अधिकांश राजनीतिक दलों का निर्माण कांग्रेस पार्टी से ही हुआ-स्वतन्त्रता प्राप्ति के प्रारम्भिक वर्षों में जितने भी विरोधी राजनीतिक दल थे उनमें से अधिकांश राजनीतिक दल कांग्रेस से ही निकले; जैसे-सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा समाजवादी पार्टी, संयुक्त समाजवादी पार्टी, जनसंघ, राम राज्य परिषद् तथा हिन्दू महासभा आदि।
3. कांग्रेस का चामत्कारिक नेतृत्व-कांग्रेस में पं० जवाहरलाल नेहरू थे जो भारतीय राजनीति के सबसे करिश्माई और लोकप्रिय नेता थे। नेहरू ने कांग्रेस पार्टी के चुनाव अभियान की अगुवाई की तथा पूरे देश का दौरा किया। वह किसी भी प्रतिद्वन्द्वी से चुनावी दौड़ में बहुत आगे रहे। फलत: कांग्रेस को तीनों प्रथम आम चुनावों में अभूतपूर्व सफलता मिली।
4. राष्ट्रीय आन्दोलन की विरासत-राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के चामत्कारिक नेतृत्व में भारत को स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। राष्ट्रीय आन्दोलन का केन्द्र भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस रही। इसलिए कांग्रेस पार्टी को स्वतन्त्रता संग्राम की विरासत प्राप्त थी। तब के दिनों में यही एकमात्र पार्टी थी जिसका संगठन सम्पूर्ण भारत में था। इसका लाभ चुनावों में कांग्रेस पार्टी को मिला।
5. गुटों में तालमेल और सहनशीलता–कांग्रेस के गठबन्धनी स्वभाव ने असें तक इसे असाधारण ताकत दी। गठबन्धन के कारण कांग्रेस सर्व-समावेशी स्वभाव और सुलह समझौते के द्वारा गुटों के सन्तुलन कायम करती रही। अपने गठबन्धनी स्वभाव के कारण कांग्रेस विभिन्न गुटों के प्रति सहनशील थी और इस स्वभाव से विभिन्न गुटों को बढ़ावा भी मिला। इसलिए विभिन्न हित और विचारधाराओं की नुमाइंदगी कर रहे नेता कांग्रेस के भीतर ही बने रहे। इस तरह कांग्रेस एक भारी-भरकम मध्यमार्गी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आती थी। दूसरी पार्टियाँ कांग्रेस के इस या उस गुट को प्रभावित करने की कोशिश करती थीं। इस तरह वे हाशिये पर ही रहकर नीतियों और फैसलों को अप्रत्यक्ष रीति से प्रभावित कर पाती थीं। अत: वे कांग्रेस का कोई विकल्प प्रस्तुत नहीं कर पाती थीं। फलतः कांग्रेस को प्रथम तीन चुनावों तक अभूतपूर्व सफलता मिलती रही।