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स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत के लोकतान्त्रिक प्रणाली अपनाने के प्रतिकूल कौन-कौन सी चुनौतियाँ थीं? विस्तारपूर्वक उल्लेख कीजिए।

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स्वतन्त्र भारत का जन्म अत्यन्त कठिन परिस्थितियों में हुआ। देश के सामने प्रारम्भ से ही राष्ट्र-निर्माण की चुनौती थी। ऐसी अनेक चुनौतियों की चपेट में आकर कई अन्य देशों के नेताओं ने फैसला किया कि उनके देश में अभी लोकतन्त्र को ही नहीं अपनाया जा सकता है। इन नेताओं ने कहा कि राष्ट्रीय एकता हमारी पहली प्राथमिकता है और लोकतन्त्र को अपनाने से मतभेद और संघर्ष को बढ़ावा मिलेगा। उपनिवेशवाद के चंगुल से आजाद हुए कई देशों में इसी कारण अलोकतान्त्रिक शासन-व्यवस्था कायम हुई। इस अलोकतान्त्रिक शासनव्यवस्था के कई रूप थे। अलोकतान्त्रिक शासन व्यवस्थाओं की शुरुआत इस वायदे से हुई कि शीघ्र ही लोकतन्त्र कायम कर दिया जाएगा।

भारत में भी परिस्थितियाँ बहुत अलग नहीं थीं, परन्तु स्वतन्त्र भारत के नेताओं ने अपने लिए कहीं अधिक कठिन रास्ता चुनने का फैसला लिया। नेताओं ने कोई और रास्ता चुना होता तो वह अचम्भित करने वाली बात होती क्योंकि हमारे स्वतन्त्रता-संग्राम की गहरी प्रतिबद्धता लोकतन्त्र से थी। हमारे नेताओं ने राजनीति को समस्या के रूप में नहीं देखा तथा वे लोकतन्त्र में राजनीति की निर्णायक भूमिका को लेकर सचेत थे। वे राजनीति को समस्या के समाधान का उपाय मानते थे। किसी भी समाज में कई समूह होते हैं, इनकी आकांक्षाएँ अक्सर अलग-अलग एक-दूसरे के विपरीत होती हैं। हर समाज के लिए यह फैसला करना आवश्यक होता है कि उसका शासन कैसे चलेगा और वह किन कायदे-कानूनों पर अमल करेगा। सत्ता और प्रतिस्पर्धा राजनीति की दो सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण चीजें हैं। परन्तु राजनीतिक गतिविधि का उद्देश्य जनहित का फैसला करना और उस पर अमल करना होता है। अतः हमारे नेताओं ने लोकतान्त्रिक राजनीति के रास्ते को चुनने का फैसला किया। स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय

निम्नलिखित परिस्थितियाँ थीं जो लोकतन्त्र की सफलता में बाधक या चुनौती थीं-
1. निरक्षरता-लोकतन्त्र की सफलता शिक्षित समाज पर ही निर्भर करती है। स्वतन्त्रता के समय, सन् 1951 की जनगणना के अनुसार भारत में साक्षरता की दर 18 प्रतिशत थी तथा इसमें भी महिला साक्षरता का 8-9 प्रतिशत था। इतनी संख्या में अशिक्षित जनता को मत देने का अधिकार बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं कहा जा सकता क्योंकि अशिक्षित व्यक्ति अपने मत का दुरुपयोग भी कर सकते हैं, उनका वोट खरीदा भी जा सकता है। अशिक्षित व्यक्ति राजनीतिक विचारधाराओं व शासन की वास्तविकताओं को भली-भाँति समझ नहीं पाता तथा राजनीतिक दलों के झांसे में आ जाता है। इस तरह निरक्षरता एक बड़ी चुनौती थी।
2. निर्धनता—ब्रिटिश शासन काल के दौरान अंग्रेजों द्वारा देश का अत्यधिक शोषण किया गया था। स्वतन्त्रता के समय देश की अर्थव्यवस्था अत्यन्त दयनीय थी। इस प्रकार की स्थिति में गरीब मतदाताओं के प्रभावित होने की गुंजाइश थी। इनके वोट को खरीदा भी जा सकता था।
3. जातिवाद-भारत के सम्पूर्ण राज्यों की राजनीति जातिवाद के कुप्रभाव से प्रभावित थी। जातिवाद लोगों की आँखों पर पट्टी बाँध देता है तथा उन्हें योग्य व चरित्रवान व्यक्ति दिखाई नहीं देता। केवल अपनी जाति का ही उम्मीदवार दिखाई देता है चाहे वह कैसा भी क्यों न हो। जातिवाद के आधार पर ही राजनीतिक दल टिकट देते हैं तथा मतदाता भी इसी आधार पर मतदान करते हैं। जातिवाद के कारण कभी-कभी हिंसक घटनाएँ भी हो जाती हैं।
4. क्षेत्रवाद-क्षेत्रवाद की भावना संकीर्ण विचारों व मानसिकता पर आधारित होती है। क्षेत्रीय आधार पर नई-नई क्षेत्रीय पार्टियों का निर्माण किया जाता है। ये पार्टियाँ क्षेत्रवाद को बढ़ावा देती हैं। वर्तमान में गठबन्धन की राजनीति ने इन क्षेत्रीय दलों के महत्त्व में अप्रतिम वृद्धि की है।
5. साम्प्रदायिकता-साम्प्रदायिकता धार्मिक आधार पर एक संकीर्ण विचारधारा है तथा लोकतन्त्र के लिए बहुत बड़ा खतरा है। हमारे देश में अनेक दलों जैसे हिन्दू सभा, मुस्लिम लीग, अकाली दल, शिव सेना, विश्व हिन्दू परिषद् आदि का निर्माण साम्प्रदायिक आधार पर किया गया। तमिलनाडु के डी० एम० के० तथा ए० आई० ए० डी० एम० के० गैर-ब्राह्मण लोगों की पार्टियाँ हैं। राजनीतिक दल साम्प्रदायिक आधार पर मतदाताओं को प्रभावित करते हैं जो कि लोकतन्त्र की सफलता में बाधक है।
6. स्त्री-पुरुष असमानता-लोकतन्त्र सभी नागरिकों के लिए समानता के सिद्धान्त पर आधारित है परन्तु भारतीय समाज में स्त्रियों को पुरुषों के समान नहीं समझा जाता था तथा उन्हें अपनी इच्छाएँ बताने की भी स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं थी। अतः वे राजनीति में कम भाग लेती थीं तथा परिवार के पुरुषों की इच्छाओं के अनुरूप ही मतदान करती थीं।

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