प्रजाति का अर्थ
Meaning of Race
प्रजाति एक जैविक विचार है जिसका अभिप्राय उस मानव वर्ग से है जो वंशानुक्रम द्वारा शारीरिक लक्षणों में समानता रखता हो। यह एक नस्ल है या जन्मजात सम्बन्धों का मानव-वर्ग है। मानव-जाति के कई वर्ग होते हैं जिनकी भिन्नता का आधार शारीरिक बनावट के विभिन्न लक्षण होते हैं। मानव-जाति एक प्राकृतिक नस्ल है। किसी भी मानव-जाति के शारीरिक लक्षण वंशानुक्रम द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे भविष्य में जारी रहते हैं। इस प्रकार शारीरिक लक्षणों के आधार पर विशिष्ट मानव-समूह को प्रजाति कहा जाता है। विभिन्न विद्वानों ने प्रजाति को परिभाषित करने का प्रयास किया है। उनके विचार निम्नलिखित हैं –
“मानव-प्रजाति नस्ल (Breed) को प्रकट करती है, न कि सभ्यता (Culture) को।” – ग्रिफिथ टेलर
“मानव-जाति का वर्गीकरण मानव-शरीर की आकृति और शारीरिक लक्षणों के आधार पर होता है।” – विडाल-डि-लों ब्लॉश
मानव-जाति एक जैविक नस्ल है जिसके प्राकृतिक लक्षणों का योग दूसरी जाति के प्राकृतिक लक्षणों के योग से भिन्न हो। ये प्राकृतिक लक्षण पीढ़ी-दर-पीढ़ी तक वैसे ही चलते रहते हैं।’ –हैडन
“प्रजाति एक प्रमाणित प्राणिशास्त्रीय संकल्पना है। यह एक समूह है जो वंशानुक्रमण, वंश या प्रजातीय गुण अथवा उपसमूह द्वारा जुड़ा है। यह सामाजिक-सांस्कृतिक संकल्पना नहीं है।”- क्रोबर
“एक प्रजाति मनुष्यों को उपविभाग है जिसमें कुछ भौतिक लक्षणों की पैतृक देन रहती है।” – गोल्डन वीजर
इस प्रकार प्रजाति का अर्थ मानव-वर्ग से है। जिस वर्ग के सभी मानवों की शारीरिक रचना के बाह्य लक्षण; जैसे शरीर का कद, त्वचा का रंग, सिर की लम्बाई-चौड़ाई, बालों की आकृति, आँखों की आकृति तथा रंग, होंठों की बनावट, नाक को चपटापन या नुकीलापने आदि; एकजैसे हों तथा उनका रक्त भी एक ही वर्ग का हो, प्रजाति कहलाती है। समान प्रकार के शारीरिक लक्षणों और रक्त-गुणों वाले मानव-वर्ग की आने वाली सन्तानों में भी वैसे ही शारीरिक लक्षण और रक्त-गुण भी बहुत-सी पीढ़ियों तक चलते रहते हैं। जो विशेषताएँ शरीर के जिन अंगों द्वारा आगे चलती हैं उनको ‘जीन्स’ (Genes) कहते हैं। इन्हीं जीन्स के कारण मानव के शरीर और मस्तिष्क निर्मित होते हैं।
प्रजाति के विकास के कारण
Causes of the Development of Race
मानव-प्रजातियों की शारीरिक रचना में बाह्य गुणों में अन्तर उपस्थित करने वाले कितने ही कारण हैं, जिनमें निम्नलिखित मुख्य हैं –
⦁ जलवायविक परिवर्तन (Climatic Changes)
⦁ ग्रन्थि-रसों का परिवर्तन (Harmones Changes)
⦁ छाँट एवं जैविक परिवर्तन (Selection and Biological Changes)
⦁ प्रवास द्वारा जातियों का मिश्रण (Racial Mixture by Migration)
प्रजाति वर्गीकरण के आधार तत्व
Basic Elements of Racial Classification
मानव-प्रजातियों का वर्गीकरण उनके शारीरिक लक्षणों के आधार पर निश्चित किया जाता है। निम्नलिखित आधार तत्त्व मुख्य हैं –
1. प्रजाति वर्गीकरण की सीमा (Extent of Racial Classification) – मानव-प्रजातियों को वर्गीकरण केवल उनके बाह्य शारीरिक लक्षणों के आधार पर किया जाना चाहिए, क्योंकि प्राकृतिक पर्यावरण परिवर्तन से ग्रन्थि-रस आदि के कारण जो परिवर्तन मानव-शरीर में होते हैं, वे केवल बाह्य लक्षणों में ही होते हैं। सभी प्रजातियों में बौद्धिक विकास, चरित्र विकास-सद्गुण या दुर्गुण, वीरता, कर्तव्यपरायणता, सत्य का पालन, देश-प्रेम आदि लक्षण एक जैसे होते हैं।
2. शारीरिक लक्षण (Physical Traits) – शरीर के बाह्य लक्षणों को अधिकाधिक प्रजातियों के वर्गीकरण का आधार बनाना चाहिए। शारीरिक लक्षणों में निम्नलिखित बाह्य लक्षण महत्त्वपूर्ण हैं –
⦁ सिर की आकृति या कपाल सूचकांक (Cephalic Index)।
⦁ बालों की बनावट (Texture of Hairs)।
⦁ नासिका देशना (Nosel Index)।
⦁ त्वचा का रंग (Skin Colour)।
मानव-प्रजातियों का वर्गीकरण करते समय किसी वर्ग के व्यक्तियों की एक बड़ी संख्या के औसत गुणों को ही आधार मानना चाहिए, क्योंकि अलग-अलग व्यक्ति एक-दूसरे से बहुत भिन्न हो सकते हैं, परन्तु उनके औसत में बहुत कम अन्तर होता है।
3. विशेष लक्षण (Special Traits) – मानव-प्रजातियों में कुछ विशेष शारीरिक लक्षण भी होते हैं, जो केवल विशेष जातियों में ही पाये जाते हैं; जैसे–मंगोलॉयड जाति के लोगों के नेत्र तिरछे होते हैं। इसके अतिरिक्त मंगोल जाति में गालों की हड्डियाँ उभरी हुईं, नाक चपटी तथा मस्तक सपाट होता है। त्वचा का रंग, सिर, नाक, केशों की आकृति और शरीर का कद ऐसे स्थायी लक्षण हैं जो एक बार अलग होने के बाद स्थिर हो गये हैं। ये लक्षण एक युग से दूसरे युग तक चलते रहते हैं तथा जातियों के मिश्रित होने पर भी थोड़ी-अधिक मात्रा में शुद्धता से जारी रहते हैं।
प्रजाति वर्गीकरण को इतिहास
History of Racial Classification
अनेक मानवशास्त्रियों ने प्रजाति वर्गीकरण के प्रयास किये हैं। आरम्भ में त्वचा के वर्ण तथा महाद्वीपों के आधार पर वर्गीकरण प्रस्तुत किये गये। उदाहरणार्थ- वर्नियर ने 1684 ई० में मानव-प्रजाति का प्रथम वर्गीकरण महाद्वीपीयता व त्वचा के वर्ण के आधार पर प्रस्तुत किया। तत्पश्चात् लिनेकस (1758) ने विशुद्ध महाद्वीपीय आधार पर प्रजाति वर्गीकरण करते हुए विश्व में चार प्रजातियाँ बताय-यूरोपीय, अमेरिकी, एशियाई व अफ्रीकी। ब्लूमैनबैच (1806) ने त्वचा के वर्ण व कपाल की आकृति के आधार पर पाँच प्रजातियाँ, बतायीं-काकेशियन, मंगोलियन, इथोपियन, अमेरिकन व मलायन। कूवियर (1817) का वर्गीकरण बाइबल के वितरण पर आधारित है। प्रिकार्ड (1840), हुक्सले (1870), हेकल (1879), टोपीनार्ड (1878), डेनिकर (1889), रिपले (1900), बियासुती (1912), डिक्सन (1923), हैडन (1924), इक्सटेड (1934), क्रोबर (1935) आदि विद्वानों ने विभिन्न वर्गीकरण प्रस्तुत किये। इनमें प्रायः सभी अपूर्ण व दोषपूर्ण माने जाते हैं
टेलर का वर्गीकरण Taylor’s Classification
ग्रिफिथ टेलर ने 1919 ई० में सिर-घातांक, केश-रचना, कद, नासिका-रचना आदि तत्त्वों के । आधार पर प्रजाति वर्गीकरण’ प्रस्तुत किया। उन्होंने जलवायु परिवर्तनों के सन्दर्भ में प्रजातियों के विकास को ‘प्रवास कटिबन्ध सिद्धान्त’ (Migration Zone Theory) के द्वारा स्पष्ट किया। उनके मतानुसार, मध्य एशिया समस्त मानव जाति का उद्गम स्थल है। यहीं से सभी प्रजातियाँ क्रमशः विकसित हुईं। बाद में विकसित होने वाली प्रजाति ने पहले विकसित प्रजाति को बाहरी भागों की ओर खदेड़ दिया। इसी नियमानुसार सबसे बाद में विकसित प्रजातियाँ अब महाद्वीपों के आन्तरिक भागों में उपस्थित हैं तथा प्राचीनतम प्रजातियाँ महाद्वीपों के किनारों पर स्थित हैं।
टेलर के अनुसार, एशिया एक केन्द्रीय महाद्वीप है। यूरेफ्रिका, ऑस्ट्रेलिया व अमेरिका इसके प्रायद्वीप हैं। इसमें क्रमश: निम्नलिखित सात प्रजातियाँ विकसित पायी जाती हैं –
⦁ नेग्रीटो (बहुत पतला सिर)
⦁ नीग्रो (बहुत लम्बे सिर)
⦁ ऑस्ट्रेलॉयड (लम्बा सिर)
⦁ मेडिटरेनियन (मॅझला लम्बा सिर)
⦁ नॉर्डिक (मॅझला सिर)
⦁ अल्पाइन (चौड़ा सिर) तथा
⦁ मंगोलियन (बहुत चौड़ा सिर)।