अधिकार सम्बन्धी विभिन्न सिद्धान्त
अधिकारों के सम्बन्ध में विभिन्न सिद्धान्त प्रचलित हैं, जिनका विवेचन निम्नलिखित है-
1. अधिकारों का प्राकृतिक सिद्धान्त – हॉब्स, लॉक, रूसो आदि विद्वानों ने अधिकारों के प्राकृतिक सिद्धान्त का समर्थन किया है। यह सिद्धान्त अति प्राचीन है। इसके अनुसार अधिकार प्रकृति-प्रदत्त हैं और वे व्यक्ति को जन्म के साथ ही प्राप्त हो जाते हैं। व्यक्ति प्राकृतिक अधिकारों का प्रयोग राज्य के उदय के पूर्व से ही करता आ रहा है। राज्य इन अधिकारों को न तो छीन सकता है और न ही वह इनका जन्मदाता है। टॉमस पेन के अनुसार, “प्राकृतिक अधिकार वे अधिकार हैं जो मनुष्य के अस्तित्व को स्थायित्व प्रदान करने के लिए आवश्यक हैं।’ इस दृष्टिकोण से अधिकार असीमित, निरपेक्ष तथा स्वयंसिद्ध हैं। राज्य इन अधिकारों में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता है।
आलोचना- इस सिद्धान्त में कतिपय दोष निम्नलिखित हैं-
⦁ यह सिद्धान्त अनैतिहासिक है, क्योंकि जिस प्राकृतिक व्यवस्था के अन्तर्गत इन अधिकारों के प्राप्त होने का उल्लेख किया गया है, वह काल्पनिक है।
⦁ ग्रीन का मत है कि समाज से पृथक् कोई भी अधिकार सम्भव नहीं है।
⦁ यह सिद्धान्त राज्य को कृत्रिम संस्था मानता है, जो अनुचित है।
⦁ प्राकृतिक अधिकारों में परस्पर विरोधाभास पाया जाता है।
⦁ यह सिद्धान्त कर्तव्यों के प्रति मौन है, जबकि कर्तव्य के अभाव में अधिकारों का अस्तित्व सम्भव नहीं है।
2. अधिकारों का कानूनी या वैधानिक सिद्धान्त – इस सिद्धान्त के प्रवर्तक बेन्थम, हॉलैण्ड, आँ स्टिन आदि विचारक हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार, अधिकार राज्य की इच्छा के परिणाम हैं और राज्य ही अधिकारों का जन्मदाता है। यह सिद्धान्त प्राकृतिक सिद्धान्त के विपरीत है। व्यक्ति राज्य के संरक्षण में रहकर ही अधिकारों का प्रयोग कर सकता है। राज्य ही कानून द्वारा ऐसी परिस्थितियों को उत्पन्न करता है, जहाँ व्यक्ति अपने अधिकारों का स्वतन्त्रतापूर्वक प्रयोग कर सके। राज्य ही अधिकारों को वैधता प्रदान करता है। यह सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि अधिकारों का अस्तित्व केवल राज्य के अन्तर्गत ही सम्भव है।
आलोचना- इस सिद्धान्त में कतिपय दोष निम्नलिखित हैं-
⦁ इस सिद्धान्त से राज्य की निरंकुशता का समर्थन होता है।
⦁ राज्य नैतिक बन्धनों से मुक्त हो जाता है।
⦁ अधिकारों में स्थायित्व नहीं रहता है।
3. अधिकारों का ऐतिहासिक सिद्धान्त – इस सिद्धान्त के अनुसार अधिकारों की उत्पत्ति प्राचीन रीति-रिवाजों के परिणामस्वरूप होती है। जिन रीति-रिवाजों को समाज स्वीकृति दे देता है, वे अधिकार का रूप धारण कर लेते हैं। इस सिद्धान्त के समर्थकों के अनुसार, अधिकार परम्परागते हैं तथा सतत विकास के परिणाम हैं। इसके अतिरिक्त इनका आधार ऐतिहासिक है। इंग्लैण्ड के संवैधानिक इतिहास में परम्परागत अधिकारों को बहुत अधिक महत्त्व रहा है।
आलोचना- इस सिद्धान्त के आलोचकों का मत है कि अधिकारों का आधार केवल रीतिरिवाज तथा परम्पराएँ नहीं हो सकतीं, क्योंकि कुछ परम्पराएँ तथा रीति-रिवाज समाज के कल्याण में बाधक होते हैं। अतः इस दृष्टि से यह सिद्धान्त तर्कसंगत नहीं है।
4. अधिकारों का समाज – कल्याण सम्बन्धी सिद्धान्त-जे०एस० मिल, जेरमी बेन्थम, पाउण्ड, लॉस्की आदि ने इस सिद्धान्त का समर्थन किया है। इस सिद्धान्त का प्रमुख लक्ष्य उपयोगिता या समाज-कल्याण है। प्रो० लॉस्की के अनुसार-“अधिकारों का औचित्य उनकी उपयोगिता के आधार पर ऑकना चाहिए। इस सिद्धान्त के अनुसार अधिकार वे साधन हैं, जिनसे समाज का कल्याण होता है। लॉस्की का मत है-“लोक-कल्याण के विरुद्ध मेरे अधिकार नहीं हो सकते क्योंकि ऐसा करना मुझे उस कल्याण के विरुद्ध अधिकार प्रदान करता है जिसमें मेरा कल्याण घनिष्ठ तथा अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।”
इस सिद्धान्त की निम्नलिखित मान्यताएँ हैं-
⦁ अधिकार समाज की देन हैं, प्रकृति की नहीं।
⦁ अधिकारों का अस्तित्व समाज-कल्याण पर आधारित है।
⦁ व्यक्ति केवल उन्हीं अधिकारों का प्रयोग कर सकता है, जो समाज के हित में हों।
⦁ कानून, रीति-रिवाज तथा अधिकार सभी का उद्देश्य समाज-कल्याण है।
आलोचना- यह सिद्धान्त तर्कसंगत और उपयोगी तो है, किन्तु इसका सबसे बड़ा दोष यह है कि यह सिद्धान्त समाज-कल्याण की ओट में राज्य को व्यक्तियों की स्वतन्त्रता का हनन करने का अवसर प्रदान करता है, लेकिन समीक्षात्मक दृष्टि से यह दोष महत्त्वहीन है।
5. अधिकारों का आदर्शवादी सिद्धान्त – इस सिद्धान्त की मान्यता है कि अधिकार वे बाह्य साधन तथा दशाएँ हैं, जो व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक होती हैं। इस सिद्धान्त का समर्थन थॉमस हिल ग्रीन, हीगल, बैडले, बोसांके आदि विचारकों ने किया है।
आलोचना- इस सिद्धान्त के कतिपय दोष निम्नलिखित हैं-
⦁ यह सिद्धान्त व्यावहारिक नहीं है क्योंकि व्यक्तित्व का विकास व्यक्तिगत पहलू है तथा राज्य एवं समाज जैसी संस्थाओं के लिए यह जानना बहुत कठिन है कि किसके विकास के लिए क्या अनावश्यक है?
⦁ यह व्यक्ति के हितों पर अधिक बल देता है तथा समाज का स्थान गौण रखता है। अतः व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए समाज के हितों के विरुद्ध कार्य कर सकता है।
⦁ मानव-जीवन के विकास की आवश्यक परिस्थितियाँ कौन-सी हैं, इनका निर्णय कौन करेगा तथा किस-किस प्रकार उपलब्ध होंगी-इन बातों को स्पष्टीकरण नहीं होता है। अतः इस सिद्धान्त का आधार ही अवैधानिक है।
समीक्षा – उपर्युक्त सभी सिद्धान्तों में आदर्शवादी सिद्धान्त सर्वमान्य और तर्कसंगत है, क्योंकि इसके आधार पर यह स्पष्ट होता है कि-
⦁ अधिकार व्यक्ति की माँग है।
⦁ अधिकारों की माँग समाज द्वारा स्वीकृत होती है।
⦁ अधिकारों का स्वरूप नैतिक होता है।
⦁ अधिकारों का उद्देश्य समाज का वास्तविक हित है।
⦁ अधिकार व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक साधन हैं।
निष्कर्ष- अधिकारों के उपर्युक्त सिद्धान्तों के अध्ययन के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अधिकारों का आदर्शवादी सिद्धान्त ही सर्वोपयुक्त है क्योंकि यह इस अवधारणा पर आधारित है कि अधिकारों की उत्पत्ति व्यक्ति के व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिए है। राज्य तथा समाज तो केवल व्यक्ति के अधिकारों की सुरक्षा तथा व्यवस्था करने के साधन मात्र हैं। व्यक्ति समाज के कल्याण में ही अपने अधिकारों का प्रयोग कर सकता है।