लोक अदालत
भारत जैसे देश में जहाँ 125 करोड़ की आबादी निवास करती है वहीं न्यायालयों के समक्ष वादों की संख्या भी अत्यधिक है। एक अध्ययन के अनुसार केवल इलाहाबाद उच्च न्यायालय में तीन लाख वादं लम्बित हैं और देर से न्याय मिलना न्याय न मिलने के समान होता है, अनेक ऐसे वाद हैं, जिनमें वादी एवं प्रतिवादी दोनों का देहान्त हो चुका होता है। इस समस्या का समाधान करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पीएन भगवती ने लोक अदालतों की व्यवस्था आरम्भ की तथा भारत में प्रथम लोक अदालत 1982 ई० में गुजरात में आयोजित की गई।
उत्तर प्रदेश में पहली लोक अदालत का आयोजन 1984 ई० में हुआ। भारत में अधिकांश आबादी इस स्तर पर है कि वे अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति भी मुश्किल से कर पाते हैं। अतः यह आबादी इन लम्बे मुकदमों को लड़ने में असमर्थ है। अतः इस सामान्य जनता के समय एवं धन की बचत के साथ-साथ न्यायालयों के कार्यभार को कम करने के उद्देश्य से भी लोक अदालत की अवधारणा अमल में लाई गई।
न्याय व्यवस्था में लोक अदालतों की प्रमुख भूमिका एवं महत्त्व
लोक अदालतों की प्रमुख भूमिका एवं महत्त्व निम्नलिखित हैं –
⦁ लोक अदालत में वादी और प्रतिवादी अपना वकील नहीं रख सकते हैं तथा आपस में समझौता करते हैं, जिससे दोनों पक्षों के सरकारी धन की बचत होती है।
⦁ लोक अदालतों में मुकदमों का निपटारा आपसी सहमति के आधार पर होता है, जिससे आपसी सद्भाव एवं समरसता भी दोनों पक्षों में बनी रहती है।
⦁ लोक अदालत में दोनों पक्षों को सलाह एवं परामर्श देने के लिए राज़पत्रित अधिकारी, सेवानिवृत्त न्यायाधीश तथा समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति होते हैं, जिससे न केवल निर्णय की निष्पक्षता बनी रहती है, वरन् मुकदमों को सामाजिक व्यापकता भी प्रदान होती है।
⦁ लोक अदालतों में सामाजिक एवं पारिवारिक विवाद, किराया, बेदखली बीमा, ब्याज आदि विभिन्न छोटे-छोटे मुकदमों को समझा-बुझाकर समझौता करा दिया जाता है तथा एक दिन में ही अनेकों मामले हल हो जाते हैं, जिससे समय की बचत होती है एवं त्वरित न्याय प्राप्ति की व्यवस्था होती है।
⦁ लोक अदालतों ने न केवल सामाजिक समस्याओं का हल निकाला है, वरन् अदालतों पर बढ़ते मुकदमों के बोझ को भी कम करने में सहायता की है।
नि:सन्देह लोक अदालतों ने सराहनीय कार्य किये हैं। विगत 33 वर्षों में इन अदालतों ने लाखों मुकदमों को शीघ्र एवं सस्ता न्याय दिलाकर निपटारा किया है।