जर्मनी में धर्म-सुधार
धर्म :
सुधार की लहर ने जर्मनी में विशद् रूप धारण कर लिया। यद्यपि इससे पूर्व कई धर्म-सुधार हो चुके थे, किन्तु इस पथ पर सफलतापूर्वक अग्रसर होने वाला प्रथम देश जर्मनी ही था। जर्मनी में धार्मिक सुधार का सूत्रपात करने का श्रेय महान् सुधारक मार्टिन लूथर को है। मार्टिन लूथर (Martin Luther) एक साधारण परिवार का था और विटनबर्ग (wittenburg) के विश्वविद्यालय में प्राध्यापक था। लूथर का जन्म 10 नवम्बर, 1483 ई० को ‘यूरिन्जिया’ नामक स्थान पर एक कृषक परिवार में हुआ था। बाल्यावस्था से ही धर्म में उसकी विशेष रुचि थी। यद्यपि उसके पिता की इच्छा उसे कानून पढ़ाने की थी किन्तु उसने धर्मशास्त्रों का अध्ययन प्रारम्भ कर दिया और 1505 ई० में वह पादरी (missionary) बन गया। पाँच वर्ष पश्चात् उसने रोम का भ्रमण किया और वहाँ के विलासितापूर्ण जीवन का गहराई से अवलोकन किया। तभी से पोप और धर्माधिकारियों के प्रति उसका विश्वास डगमगाने लगा। रोम से लौटकर उसने विटनबर्ग में प्राध्यापक का पद ग्रहण किया तथा वहाँ पर वह धर्मशास्त्र की शिक्षा देने लगा। उसके साहस और स्पष्टता के कारण उसके शिष्य उसका अत्यधिक सम्मान करते थे। लूथर 1510 ई० में रोम गया। वहाँ उसने पोप के दरबार में भ्रष्टाचार का बोलबाला देखा। वहीं उसने धर्म-सुधार की तीव्र आवश्यकता अनुभव की और उसे पूरा करने का संकल्प लिया। धीरे-धीरे कैथोलिक धर्म पर से उसका विश्वास उठता चला गया; क्योकि कैथोलिक धर्म इस समय भोग-विलास, व्यभिचार, भ्रष्टाचार और बाह्याडम्बरों का अड्डा बना हुआ था। धर्म की पुस्तकों के गहन अध्ययन से लूथर इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि मुक्ति का मार्ग दया एवं क्षमा पर आधारित है। पोप एवं धर्माधिकारी, मनुष्य की इस दिशा में कोई सहायता नहीं कर सकते। प्रारम्भ में तो लूथर को पोप का सक्रिय विरोध करने का साहस नहीं था, किन्तु 1517 ई० में जब पोप ने क्षमा-पत्रों की बिक्री आरम्भ की तो लूथर ने पोप का विरोध प्रारम्भ कर दिया। यह विरोध तीव्र गति से बढ़ता चला गया। क्षमा-पत्रों की बिक्री प्रारम्भ करने वाला पोप लियो दशम (Leo X) था जिसने सेण्ट पीटर का गिरजाघर बनवाने में अपार सम्पत्ति व्यय कर दी और अधिक धन प्राप्त करने के लिए उसने इन क्षमा-पत्रों का निर्माण कराया, जिसका आशय था कि इन पत्रों को खरीदने वाले को ईश्वर के दरबार में पापों से मुक्ति मिल जाएगी तथा उसे कोई दण्ड नहीं भुगतना पड़ेगा। पोप ने विटनबर्ग में भी अपना एक दूत भेजा, जो बड़े उत्साह से इन क्षमा-पत्रों को बेच रहा था। यह देखकर लूथर अत्यधिक दु:खी एवं क्रोधित हुआ और उसने गिरजाघर के द्वार पर एक नोटिस लगा दिया, जिसमें रोमन कैथोलिक धर्म के व्यावहारिक सिद्धान्तों का विरोध किया गया था तथा इन सिद्धान्तों की एक सूची भी प्रस्तुत की गई थी। इस नोटिस में लूशर ने यह भी घोषणा की थी कि इन सिद्धान्तों पर कोई भी व्यक्ति उससे शास्त्रार्थ कर सकता है। इस प्रकार लूथर ने रोमन कैथोलिक धर्म का दृढ़तापूर्वक विरोध प्रारम्भ कर दिया। दो वर्ष उपरान्त चर्च के एक अत्यन्त योग्य पादरी को उसने वाद-विवाद में पराजित किया तथा यह सिद्ध कर दिया कि केवल पोप और चर्च को ही ईसामसीह के सिद्धान्तों के अर्थ समझने 3-६’ उनकी व्याख्या करने का अधिकार प्राप्त नहीं है। विकलिफ एवं जॉन हस के समान लूथर ने इस बात का प्रचार किया कि प्रत्येक व्यक्ति ‘बाइबिल’ पढ़ने और उसे समझने का अधिकार रखता है। लूथर के इस विरोध ने पोप को चौंका दिया क्योंकि अब तक ऐसा प्रबल विरोध करने का साहस किसी ने नहीं किया था। इसके अतिरिक्त जर्मनी की बहुत-सी जनता लूथर को अपना धर्मगुरु मानकर उसकी आज्ञाओं का पालन करने लगी थी और उन्होंने पोप के प्रभुत्व के भार को उतार फेंका था। इन सब बातों के कारण पोप लियो देशम क्रुद्ध हो उठा। उसने लूथर को धर्म से बहिष्कृत किया और पवित्र रोमन सम्राट चार्ल्स पंचम को आदेश दिया कि वह नास्तिक लूथर को दण्ड दे। पोप ने लूथर को नास्तिक कहना आरम्भ कर दिया था। किन्तु इस समय तक जर्मनी की अधिकांश जनता लूथर की अनुयायी बन चुकी थी और उसको इतना बड़ा दण्ड देना सरल न था। उसको दण्ड देने से गृह-युद्ध होने की पूरी आशंका थी। यहाँ तक कि कुछ शासकों ने उसका पक्ष लेना प्रारम्भ कर दिया और सैक्सनी के शासक फ्रेड्रिक ने खुले रूप में लूथर को शरण दी। उसने घोषणा की कि जब तक मेरे महल की एक भी ईंट शेष रहेगी लूथर का कोई बाल भी बाँकी नहीं कर सकता। इस प्रकार उत्तरी जर्मनी की अधिकांश जनता लूथर के पक्ष में हो गई और वे लोग कैथोलिक धर्म के विरुद्ध विद्रोह करने को तत्पर हो गए। दक्षिणी जर्मनी में किसानों और मजदूरों न विद्रोह कर दिए और धनिक वर्ग इन विद्रोहों से भयभीत हो उठा। लूथर ने विद्रोहों में धनिकों का पक्ष लिया जिसके कारण किसानों ने उसका विरोध प्रारम्भ कर दिया। यद्यपि 1525 ई० में इस विद्रोह का दमन कर दिया गया, किन्तु इस विद्रोह ने जर्मनी को भी दो भागों में विभाजित कर दिया। उत्तरी जर्मनी के राज्यों में जनता अधिकांशत: लूथर की अनुयायी थी और दक्षिणी जर्मनी में कैथोलिक चर्च की। किन्तु डेनमार्क और अन्य स्केण्डिनेवियन राज्यों में भी लूथर का धर्म फैल गया इस प्रकार लूथर को प्रोटेस्टैण्ट धर्म का जन्मदाता माना जाने लगा। जर्मनी में काफी समय तक गृह-युद्ध चलता रहा, किन्तु अन्त में 1515 ई० में ऑग्सबर्ग (Augsburg) के स्थान पर दोनों धर्मावलम्बियों में समझौता हो गया। इस सन्धि के द्वारा पवित्र रोमन सम्राट ने यह बात स्वीकार कर ली कि जर्मनी के विभिन्न प्रदेशों के शासक दोनों धर्मों में से कोई भी धर्म मानने के लिए स्वतन्त्र हैं। इस सन्धि से लूथर द्वारा स्थापित प्रोटेस्टेण्ट धर्म को वैधानिक मान्यता प्रदान कर दी गई किन्तु जनसाधारण को कोई धार्मिक स्वतन्त्रता न थी। उनके शासक जिस धर्म को मानते थे वही धर्म जनता को मानना पड़ता था, अन्यथा शासक लोग विधर्मियों पर भीषण अत्याचार करते थे। यह धार्मिक अत्याचारों का युग सत्रहवीं शताब्दी तक निरन्तर चलता रहा।