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भारतीय संविधान में वर्णित नागरिकों के मौलिक अधिकारों में समानता के अधिकार का वर्णन कीजिए।

या

भारतीय संविधान द्वारा नागरिकों को दिये गये मूल अधिकारों में स्वतन्त्रता के अधिकार का सविस्तार वर्णन कीजिए।

या

मौलिक अधिकार क्या हैं ? भारतीय संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।

या

संविधान में वर्णित नागरिकों के मौलिक अधिकारों में संवैधानिक उपचारों के अधिकार का वर्णन कीजिए और इनका महत्त्व बताइए।

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वे अधिकार, जो मानव-जीवन के लिए आवश्यक एवं अपरिहार्य हैं तथा संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किये जाते हैं, मौलिक अधिकार कहलाते हैं। इन अधिकारों का व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका द्वारा भी उल्लंघन नहीं किया जा सकता। न्यायपालिका ऐसे समस्त कानूनों को अवैध घोषित कर सकती है, जो संविधान के अनुच्छेदों का उल्लंघन अथवा अतिक्रमण करते हैं। मौलिक अधिकार व्यक्ति के व्यक्तित्व से सम्बद्ध रहते हैं। अत: राज्य द्वारा निर्मित किसी भी कानून से ऊपर होते हैं। इनमें किसी प्रकार का संशोधन केवल संविधान संशोधन के आधार पर ही किया जा सकता है। भारतीय संविधान में निहित मौलिक अधिकार एक विस्तृत अधिकार-पत्र के रूप में हैं। मौलिक अधिकार संविधान के भाग 3 में वर्णित किये गये हैं। भारतीय संविधान के तृतीय भाग में अनुच्छेद 12 से 35 तक मौलिक अधिकारों का विशिष्ट विवेचन किया गया है। इसके द्वारा भारतीय नागरिकों को सात मौलिक अधिकार प्रदान किये गये थे, किन्तु 44वें संवैधानिक संशोधन (1979) द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में समाप्त कर दिया गया है। अब सम्पत्ति का अधिकार केवल एक कानूनी अधिकार के रूप में है।

मौलिक अधिकारों के प्रकार

भारतीय नागरिकों को निम्नलिखित छ: मौलिक अधिकार प्राप्त हैं –

(i) समानता का अधिकार
संविधान द्वारा निम्नलिखित पाँच प्रकार की समानताएँ प्रदान की गयी हैं –
(1) कानून के क्षेत्र में समानता(अनुच्छेद 14) – संविधान में, कानून के क्षेत्र में सभी नागरिकों को समान अधिकार दिये गये हैं। कानून की दृष्टि में न कोई छोटा है न बड़ा। वह निर्धन को हीन दृष्टि से नहीं देखता और धनवान को भी विशेष महत्त्व नहीं देता। तात्पर्य यह है कि वह सभी को समान दृष्टि से देखता है। धर्म-लिंग के आधार पर भी किसी से किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करता।
(2) सार्वजनिक स्थानों के उपभोग में समानता (अनुच्छेद 15) – संविधान में यह स्पष्ट लिखा है कि सार्वजनिक स्थानों; जैसे – तालाबों, नहरों, पार्को आदि सभी का, सभी नागरिक बिना किसी भेदभाव के उपभोग करने के समान अधिकारी हैं।
(3) सरकारी नौकरियों में समानता (अनुच्छेद 16) – सरकारी नौकरियों में नियुक्ति के समय किसी के साथ धर्म, लिंग, जाति आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा और नियुक्ति या पदोन्नति का आधार केवल योग्यता को माना जाएगा। इस अधिकार का अपवाद यह है कि अनुसूचित जाति- जनजातियों के लिए नौकरियों में कुछ स्थान सुरक्षित कर दिये गये हैं। राज्य पिछड़े वर्गों के लिए भी स्थानों का आरक्षण कर सकता है। इसके अतिरिक्त राज्य कुछ पदों के लिए आवास की योग्यता भी निर्धारित कर सकता है।
(4) अस्पृश्यता का अन्त (अनुच्छेद 17) – अनुसूचित जातियों के उत्थान और उनमें स्वाभिमान की भावना जगाने तथा उनका विकास करने के उद्देश्य से अस्पृश्यता को अपराध घोषित किया गया है।
(5) उपाधियों का अन्त (अनुच्छेद 18) – व्यक्तियों में पारस्परिक भेदभाव, ऊँच-नीच की भावना को समाप्त कर, समाज में समानता स्थापित करने के उद्देश्य से, संविधान ने अंग्रेजी शासन द्वारा दी जाने वाली सभी उपाधियों को निरस्त कर दिया है। अब केवल शैक्षिक और सैनिक उपाधियाँ ही दी जाती हैं।
अपवाद – उपर्युक्त क्षेत्रों में समानता का सिद्धान्त लागू किया गया है, फिर भी मानव-हितों और उनके उत्थान को ध्यान में रखकर सरकार कुछ क्षेत्रों में इन नियमों की अवहेलना भी कर सकती है।

(ii) स्वतन्त्रता का अधिकार
(1) अनुच्छेद 19 द्वारा इस अधिकार से सम्बन्धित निम्नलिखित छः स्वतन्त्रताएँ नागरिकों को प्राप्त हैं –
⦁    भाषण द्वारा विचाराभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता-संविधान ने प्रत्येक व्यक्ति को भाषण के रूप में अपने विचार व्यक्त करने एवं अपने विचारों को पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कराने की स्वतन्त्रता प्रदान की है।
⦁    सभा करने की स्वतन्त्रता संविधान ने नागरिकों को शान्तिपूर्वक सभा व सम्मेलन करने की भी स्वतन्त्रता प्रदान की है।
⦁    व्यवसाय की स्वतन्त्रता–प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार व्यवसाय करने के लिए स्वतन्त्र है।
⦁    संघ या समुदाय के निर्माण की स्वतन्त्रता-नागरिकों को मानव-हितों के लिए समुदायों अथवा संघों के निर्माण की स्वतन्त्रता है।
⦁    भ्रमण की स्वतन्त्रता-संविधान ने नागरिकों को देश की सीमाओं के अन्दर स्वतन्त्रतापूर्वक एक स्थान से दूसरे स्थान पर आने-जाने की पूर्ण स्वतन्त्रता दी है।
⦁    आवास की स्वतन्त्रता प्रत्येक व्यक्ति को इस बात की स्वतन्त्रता दी गयी है कि वह अपनी स्थिति के अनुसार किसी भी स्थान पर रहे।
अपवाद – समाज तथा राष्ट्र के हित में सरकार के द्वारा स्वतन्त्रता के अधिकार पर भी विवेकपूर्ण प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं।
(2) अपराधों की दोषसिद्धि के सम्बन्ध में संरक्षण – अनुच्छेद 20 के अनुसार
(क) किसी व्यक्ति को उस समय तक दण्ड नहीं दिया जा सकता, जब तक कि उसने किसी प्रचलित कानून को न तोड़ा हो तथा
(ख) उसे स्वयं अपने विरुद्ध गवाही देने के लिए किसी भी प्रकार से बाध्य नहीं किया जा सकता।
(3) जीवन और शरीर-रक्षण का अधिकार अनुच्छेद 21 के अनुसार, किसी व्यक्ति की प्राण अथवा दैहिक स्वतन्त्रता को केवल विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया को छोड़कर, अन्य किसी प्रकार से वंचित नहीं किया जाएगा।
(4) बन्दीकरण के संरक्षण की स्वतन्त्रता-अनुच्छेद 22 के अनुसार
(क) प्रत्येक बन्दी को बन्दी होने का कारण जानने का अधिकार दिया गया है तथा
(ख) किसी को बन्दी बनाने के बाद उसे 24 घण्टे के अन्दर ही किसी न्यायाधीश के समक्ष उपस्थित करना आवश्यक है।

(iii) शोषण के विरुद्ध अधिकार
संविधान में अनुच्छेद 23 व 24 को सम्मिलित करने का उद्देश्य यह था कि कोई किसी का शोषण ने कर सके। अतः संविधान द्वारा यह घोषणा की गयी है कि –

⦁    किसी व्यक्ति से बेगार और बलपूर्वक काम नहीं लिया जाएगा।
⦁    चौदह वर्ष से कम आयु के बालक-बालिकाओं से खानों, कारखानों तथा स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालने वाले स्थानों पर काम नहीं लिया जाएगा।
⦁    स्त्रियों व बच्चों का क्रय-विक्रय करना अपराध है। अपवाद-राज्य सार्वजनिक कार्यों के लिए नागरिकों की अनिवार्य सेवाएँ प्राप्त कर सकता है।

(iv) धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार
संविधान ने भारत में धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करने के उद्देश्य से प्रत्येक नागरिक को पूर्ण धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की है अर्थात् प्रत्येक नागरिक अपनी अन्तरात्मा के अनुसार कोई भी धर्म स्वीकार कर सकता है, अपने धर्म की प्रथा के अनुसार आराधना कर सकता है तथा अपने धर्म का प्रचार-प्रसार कर सकता है (अनुच्छेद 25)। सभी व्यक्तियों को धार्मिक मामलों एवं संस्थाओं का प्रबन्ध करने की भी स्वतन्त्रता है (अनुच्छेद 26)। राज्य किसी भी धर्म के साथ पक्षपात नहीं करेगा। इसका आशय यह है कि राज्य धार्मिक मामलों में पूर्णरूप से तटस्थ है और धर्म, व्यक्ति का व्यक्तिगत विषय है। इसके अतिरिक्त, नागरिकों पर किसी प्रकार का धार्मिक कर नहीं लगाया जाएगा (अनुच्छेद 27)। यह भी घोषणा की गयी है कि सरकारी अथवा सरकारी सहायता या मान्यता प्राप्त शिक्षा संस्था में किसी धर्म-विशेष की शिक्षा नहीं दी जा सकती है (अनुच्छेद 28)। इसके अतिरिक्त 42वें संवैधानिक संशोधन के द्वारा संविधान की प्रस्तावना में ‘पन्थनिरपेक्ष’ शब्द जोड़ा गया है।

अपवाद – अन्य अधिकारों की भाँति इस अधिकार पर भी कुछ प्रतिबन्ध हैं। सरकार किसी भी ऐसे धार्मिक आचरण पर कानून बनाकर रोक लगा सकती है, जिससे सामाजिक या राष्ट्रीय हितों को कोई खतरा पहुँचता हो।

(v) सांस्कृतिक व शिक्षा-सम्बन्धी अधिकार
⦁    अनुच्छेद 29 के अनुसार प्रत्येक भाषा-भाषी को अपनी संस्कृति, भाषा और लिपि को सुरक्षित रखने का अधिकार है।
⦁    प्रत्येक व्यक्ति को राज्य द्वारा स्थापित या राज्य द्वारा दी गयी आर्थिक सहायता से चल रहे शिक्षण संस्थान में प्रवेश लेने का अधिकार है, चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या वर्ग से सम्बन्ध रखता हो।
⦁    अनुच्छेद 30 के अनुसार प्रत्येक वर्ग के व्यक्तियों को अपनी इच्छानुसार शिक्षण संस्थाएँ खोलने का अधिकार दिया गया है।
⦁    संविधान संशोधन, 93 (2001) के अनुसार 6 वर्ष से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए नि:शुल्क शिक्षा का अधिकार दिया गया है।

(vi) संवैधानिके उपचारों का अधिकार
उपर्युक्त मूल अधिकारों की रक्षा हेतु संविधान में अनुच्छेद 32 के अनुसार संवैधानिक उपचारों का अधिकार भी सम्मिलित किया गया है। इस अधिकार का तात्पर्य यह है कि यदि राज्य या सरकार, नागरिक को दिये गये मूल अधिकारों पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध लगाती है या उनका अतिक्रमण करती है तो वे उसके लिए उच्च न्यायालय अथवा सर्वोच्च न्यायालय की शरण ले सकते हैं। नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निम्नलिखित पाँच प्रकार के लेख जारी किये जाते हैं –

⦁    बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus)
⦁    परमादेश (Mandamus)
⦁    अधिकार पृच्छा (Quo-Warranto)
⦁    प्रतिषेध (Prohibition)
⦁    उत्प्रेषण लेख (Certiorari)।
अपवाद – व्यक्तियों के द्वारा साधारण परिस्थितियों में ही न्यायालय की शरण लेकर अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा की जा सकती है। आपातकाल में कोई व्यक्ति अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायालय में प्रार्थना नहीं कर सकता।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि नागरिकों को संविधान के द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों का क्षेत्र बहुत व्यापक है। मौलिक अधिकार व्यक्ति-स्वातन्त्र्य तथा अधिकारों के हित में राज्य की शक्ति पर प्रतिबन्ध लगाने के श्रेष्ठ उपाय हैं। भारत ही नहीं वरन् विश्व के अधिकांश राष्ट्रों में वर्तमान समय में मौलिक अधिकारों की व्यवस्था ने एक सर्वमान्य अवधारणा का रूप धारण कर लिया है।

मौलिक अधिकारों का महत्त्व

मूल अधिकार लोकतन्त्र के आधार-स्तम्भ हैं। मूल’ का अर्थ होता है-जड़। वृक्ष के लिए जो महत्त्व जड़ का होता है, वही महत्त्व नागरिकों के लिए इन अधिकारों का है। जिस प्रकार जड़ के बिना वृक्ष का अस्तित्व सम्भव नहीं है, उसी प्रकार मौलिक अधिकारों के बिना नागरिकों का शारीरिक, मानसिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास सम्भव नहीं है। ये जनता के जीवन के रक्षक हैं। ये बहुमत की तानाशाही पर अंकुश लगाते हैं और मानव की स्वतन्त्रता तथा सामाजिक नियन्त्रण में समन्वय स्थापित करते हैं।

संविधान में मौलिक अधिकारों का बहुत महत्त्व है, जो निम्नलिखित है –

(1) मौलिक अधिकार प्रजातन्त्र के आधार-स्तम्भ हैं – मूल अधिकार प्रजातन्त्र के लिए अनिवार्य हैं। इनके द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण शारीरिक, मानसिक और नैतिक विकास की सुरक्षा प्रदान की जाती है।
(2) बहुमत की तानाशाही को रोकते हैं – मौलिक अधिकार एक देश के राजनीतिक जीवन में एक दल विशेष की तानाशाही स्थापित होने से रोकने के लिए अनिवार्य हैं। मौलिक अधिकार शासकीय और बहुमत वर्ग के अत्याचारों से व्यक्ति की रक्षा करते हैं।
(3) व्यक्ति की स्वतन्त्रता और सामाजिक नियन्त्रण में समन्वय – मौलिक अधिकार व्यक्ति की स्वतन्त्रता और सामाजिक नियन्त्रण के उचित सामंजस्य की स्थापना करते हैं।
मौलिक अधिकारों का संविधान में उल्लेख कर देने से उनके महत्त्व और सम्मान में वृद्धि होती है। इससे उन्हें साधारण कानून से अधिक उच्च स्थान और पवित्रता प्राप्त हो जाती है। इससे वे अनुल्लंघनीय होते हैं। व्यवस्थापिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका के लिए उनका पालन आवश्यक हो जाता है।

डॉ० भीमराव अम्बेडकर ने मौलिक अधिकारों का महत्त्व व्यक्त करते हुए कहा है कि, “मौलिक अधिकारों के अनुच्छेद के बिना संविधान अधूरा रह जाएगा। ये संविधान की आत्मा और हृदय हैं।”

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