भारतीय संसद की स्थिति और भूमिका
भारतीय संसद ब्रिटिश संसद के समान सम्प्रभु नहीं है। नॉर्मन डी० पामर के अनुसार, “भारतीय संसद विस्तृत शक्तियों का प्रयोग करती है तथा महत्त्वपूर्ण कार्यों का सम्पादन करती है, तथापि इसके कार्यों पर अनेक प्रतिबन्ध हैं। संघीय प्रणाली तथा संविधान द्वारा उच्चतम न्यायालय को न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति प्रदान करने से इसकी शक्तियाँ सीमित हो गई हैं।”
वास्तव में, लिखित संविधान, संविधान की सर्वोच्चता तथा न्यायिक पुनरावलोकन की प्रक्रिया ने संसद पर सीमाएँ अवश्य लगाई हैं, परन्तु संसद देश की सर्वोच्च प्रतिनिधि संस्था है, उसे संविधान में संशोधन करने का अधिकार है। अतः स्पष्ट है कि भारतीय संसद की स्थिति ‘संसदीय सम्प्रभुता’ तथा ‘न्यायिक सर्वोच्चता के बीच की है।
भारत में संसद की प्रभावी भूमिका के सम्बन्ध में समय-समय पर सारगर्भित आलोचनाएँ की जाती रही हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि प्रधानमंत्री और मंत्रिमण्डल का संसद पर सदा दबाव बना रहा है। प्रधानमंत्री और मंत्रिमण्डल जो भी निर्णय लेते हैं, संसद उनका अनुमोदन कर देती है। डॉ० लक्ष्मीलाल सिंघवी के अनुसार, “यह सत्य है कि कानून बनाने की तथा कर व शुल्क लगाने की सर्वोपरि सत्ता संसद में निहित है, किन्तु वास्तविकता यह है कि अधिनियमों का बीजारोपण और अभ्युदय मंत्रालयों में होता है, संसद में केवल मंत्रोच्चारण के साथ उपनयन संस्कार होता है और उन्हें औपचारिक यज्ञोपवीत दे दिया जाता है। इस कथन से स्पष्ट होता है कि मंत्रिमण्डल के प्रभावशाली व्यक्तित्व तथा उसके दल के संसद में बहुमत होने से संसद के अधिकार प्रधानमंत्री और मंत्रिमण्डल ने ग्रहण कर लिए हैं। शक्तिशाली विपक्ष के अभाव में संसद; प्रधानमंत्री और मंत्रिमण्डल की इच्छानुसार ही कार्य करती है। पिछले कुछ वर्षों में लोकसभा के स्तर में जो अभूतपूर्व गिरावट देखने को मिली है, वह लोकतन्त्र के लिए चिन्ता का विषय है। सांसदों के आचरण को देखकर हीरेन मुकर्जी ने कहा है, भारतीय संसद स्वर्ण युग प्राप्त किए बिना ही पतन की ओर अग्रसर हो रही है।”
भारतीय संसद के पराभव के लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी माने जा सकते हैं –
⦁ संसद सदस्य पारस्परिक वाद-विवाद तथा आरोप-प्रत्यारोपों के कारण अपना बहुमूल्य समय नष्ट कर देते हैं, जिससे वे कानून सम्बन्धी मामलों पर गम्भीरता से विचार नहीं कर पाते।
⦁ वर्तमान में राज्य के कार्य इतने अधिक विस्तृत हो गए हैं कि प्रत्येक विषय पर विचार करने के लिए न तो संसद के पास समय है और न ही सदस्यों को तकनीकी जानकारी है। अत: संसद को नौकरशाही द्वारा की गई सूचनाओं पर निर्भर रहना पड़ता है जिनकी प्रामाणिकता सदैव संदिग्ध होती है।
⦁ संसद में साधारणतया सरकारी विधेयक ही पारित हो पाते हैं। दलीय अनुशासन के कारण सदन के सदस्यों को इनका समर्थन करना ही पड़ता है। ऐसी स्थिति में व्यवहार में विधि-निर्माण कार्य संसद का न होकर मंत्रिमण्डल का हो गया है।
⦁ संसद की वित्तीय शक्तियाँ मात्र औपचारिक हैं, क्योंकि जिस दल को लोकसभा में बहुमत होता है, वही सत्ताधारी होती है और इसके लिए वित्त विधेयक पारित करवाना कठिन कार्य नहीं होता है।
⦁ राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने का अधिकार प्राप्त है। इन अध्यादेशों को वही मान्यता प्राप्त होती है, जो संसद द्वारा पारित कानूनों को प्राप्त होती है।
भारतीय संसद की अनेक कमियों के बावजूद भी इसने देश की राष्ट्रीय एकता और अखण्डता को बनाए रखने के लिए अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किए हैं। आज संसद की गरिमा को ऊँचा उठाने के लिए इसमें सुधार की आवश्यकता है।