राज्य के विरुद्ध विद्रोह का अधिकार
राज्य के प्रति निष्ठा एवं भक्ति रखना और राज्य की आज्ञाओं का पालन करना व्यक्ति का कानूनी दायित्व होता है। अतः व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध विद्रोह का कानूनी अधिकार तो प्राप्त हो ही नहीं सकता, परन्तु व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध विद्रोह का नैतिक अधिकार अवश्य प्राप्त होता है। शासन के अस्तित्व का उद्देश्य सामान्य जनता का हित सम्पादित करना होता है। जब शासन जनता के हित में कार्य न करे, तब व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध विद्रोह का केवल नैतिक अधिकार ही प्राप्त नहीं है, वरन् । यह उसका नैतिक कर्त्तव्य भी है। इस सम्बन्ध में सुकरात का मत था कि यदि व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध विद्रोह करने का अधिकार है तो राज्य द्वारा प्रदान किए गए दण्ड को भी स्वीकार करना उसका कर्तव्य है। व्यक्तिवादी तथा अराजकतावादी विचारकों ने व्यक्ति द्वारा राज्य का विरोध करने के अधिकार का समर्थन किया है।
गांधी जी के अनुसार, “व्यक्ति का सर्वोच्च कर्तव्य अपनी अन्तरात्मा के प्रति होता है।” अत: अन्तरात्मा की आवाज पर राज्य का विरोध भी किया जा सकता है। राज्य के विरुद्ध विद्रोह करने के सम्बन्ध में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि इस अधिकार का प्रयोग राज्य एवं समाज के हित से सम्बन्धित सभी बातों पर विचार करके तथा विशेष परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिए। लोकतान्त्रिक राज्यों में नागरिकों को शासन की आलोचना करने एवं अपना दल बनाने का भी अधिकार होता है। लोकतान्त्रिक देशों में राज्य के प्रति विरोध का अधिकार जनता की इस भावना से परिलक्षित होता है कि वह राज्य के प्रति अपना दायित्व निष्ठापूर्वक न निभा रहे प्रतिनिधियों को आगे सत्ती का अवसर प्रदान नहीं करती।