संरचनात्मक हिंसा के विविध रूप निम्नलिखित हैं-
1. अस्पृश्यता- परम्परागत जाति व्यवस्था कुछ विशिष्ट समूह के लोगों को अस्पृश्य मानकर व्यवहार करती थी। स्वतन्त्र भारत के संविधान द्वारा गैर-कानूनी घोषित किए जाने तक अस्पृश्यता के प्रचलन ने उन्हें सामाजिक बहिष्कार और अत्यधिक वंचना का शिकार बना रखा था। भयावह रीति-रिवाजों के इन घावों को देश अभी तक सह रहा है। हालाँकि वर्ग आधारित समाज व्यवस्था अधिक लचीली दिखती है, लेकिन इसने भी काफी असमानती और उत्पीड़न को जन्म दिया है। विकासशील देशों की अधिकांश कार्यशील जनसंख्या असंगठित क्षेत्र से सम्बद्ध है, जिसमें पारिश्रमिक और काम की दशा बहुत खराब है।
2. स्त्री हिंसा- समाज में पितृसत्ता के आधार पर जिन सामाजिक संगठनों का निर्माण होता है, उनकी परिणति महिलाओं को व्यवस्थित रूप से अधीन बनाने और उनके साथ भेदभाव करने में होती है। इसकी अभिव्यक्ति कन्या भ्रूण हत्या, लड़कियों को पर्याप्त पोषण और शिक्षा न देना, बाल-विवाह, पत्नी को पीटना, दहेज से जुड़े अपराध, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न, बलात्कार, हत्या के रूप में होती है। भारत में निम्न लिंगानुपात (प्रति 1000 पुरुषों पर 933 स्त्रियाँ) पितृसत्ता विध्वंस का मर्मस्पर्शी सूचक है।
3. गुलामी का जीवन- उपनिवेशवादी विदेशी शासन के फलस्वरूप लोगों पर प्रत्यक्ष और दीर्घकाल के लिए गुलामी थोप दी गई थी। अब ऐसा होना लगभग असम्भव है। पर इजरायली प्रभुत्व के विरुद्ध जारी फिलिस्तीनी संघर्ष दिखाता है कि इसका अस्तित्व पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है। इसके अतिरिक्त, यूरोपीय उपनिवेशवादी देशों के पूर्ववर्ती उपनिवेशों को अभी भी बहुआयामी शोषण के उन प्रभावों से पूरी तरह उभरना शेष है, जिसे उन्होंने औपनिवेशिक काल में झेला।
4. रंगभेद और साम्प्रदायिकता- रंगभेद और साम्प्रदायिकता में एक सम्पूर्ण नस्लगत समूह अथवा समुदाय पर लांछन लगाना और उनका दमन करना सम्मिलित रहता है। हालाँकि मानवता को विभिन्न नस्लों के आधार पर विभाजित कर सकने की अवधारणा वैज्ञानिक रूप से अप्रमाणिक है लेकिन अनेक बार इसका उपयोग मानव विरोधी कुकृत्यों को उचित ठहराने में किया ही जाता है। सन् 1865 तक अमेरिका में अश्वेत लोगों को गुलाम बनाने की प्रथा; हिटलर के समय जर्मनी में यहूदियों का कत्लेआम तथा दक्षिण अफ्रीका की गोरी सरकार की सन् 1992 तक अपनी बहुसंख्यक अश्वेत आबादी के साथ निम्न दर्जे के नागरिकों जैसा व्यवहार करने वाली रंगभेद की नीति इसके सर्वोत्तम उदाहरण हैं। पश्चिमी देशों में नस्ली भेदभाव गोपनीय रूप से अभी भी जारी है। अब इसका प्रयोग प्राय: एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के विभिन्न देशों के आप्रवासियों के विरुद्ध होता है। साम्प्रदायिकता को नस्लवाद को दक्षिण एशियाई प्रतिरूप स्वीकारा जा सकता है। जहाँ शिकार अल्पसंख्यक धार्मिक समूह हुआ करते हैं।
हिंसा का शिकार व्यक्ति जिन मनोवैज्ञानिक और भौतिक हानियों से गुजरता है ये हानियाँ उसके भीतर शिकायतें उत्पन्न करती हैं। ये शिकायतें पीढ़ियों तक बनी रहती हैं। ऐसे समूह कभी-कभी किसी घटना या टिप्पणी से भी उत्तेजित होकर संघर्षों के ताजा दौर की शुरूआत कर सकते हैं। दक्षिण एशिया में विभिन्न समुदायों द्वारा एक-दूसरे के विरुद्ध लम्बे समय से मन में रखी पुरानी शिकायतों के उदाहरण हमारे सामने हैं; जैसे-सन् 1947 में भारत के विभाजन के दौरान भड़की हिंसा से उपजी शिकायतें आज भी लोगों में टीस पैदा करती हैं।
न्यायपूर्ण और टिकाऊ शान्ति अप्रकट शिकायतें और संघर्ष के कारणों को साफ-साफ प्रकट करने और बातचीत द्वारा हल करने के माध्यम से ही प्राप्त की जा सकती हैं। इसीलिए भारत और पाकिस्तान के बीच की समस्याओं का हल करने के वर्तमान प्रयासों में प्रत्येक वर्ग के लोगों
के बीच अधिक सम्पर्क को प्रोत्साहित करना भी सम्मिलित है।