पूर्ण रोजगार के अभाव की स्थिति को बेरोजगारी कहते हैं। यह एक अत्यन्त पतित एवं दूषित स्थिति है जिसे ‘आर्थिक बरबादी’ के नाम से भी पुकारा जाता है। वस्तुतः बेरोजगारी की स्थिति आर्थिक विकास के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है जो सामाजिक और राजनीतिक अशान्ति को जन्म देती है। इसका समस्त समाज पर व्यापक दुष्प्रभाव पड़ता है। अर्थशास्त्रीय दृष्टि से वही व्यक्ति बेरोजगार कहलाता है, जो शारीरिक तथा मानसिक दृष्टि से कार्य करने के योग्य हो। साथ ही, प्रचलित मजदूरी की दर पर कार्य करने को तत्पर भी हो, परंतु उसे कार्य न मिले। इसके विपरीत, यदि कोई व्यक्ति शारीरिक या मानसिक दृष्टि से कार्य करने के योग्य नहीं है अथवा प्रचलित मजदूरी की दर पर कार्य करने के लिए तत्पर नहीं है (जबकि उसे कार्य उपलब्ध हो) तो उसे बेरोजगार नहीं कहा जाएगा। अभिप्राय यह है कि अर्थशास्त्र में ऐच्छिक बेरोजगारी (Voluntary Unemployment) को बेरोजगारी नहीं कहा जाता।
ऐच्छिक बेरोजगारी
प्रत्येक समाज में प्रत्येक समय कुछ-न-कुछ व्यक्ति ऐसे अवश्य पाए जाते हैं जो काम करने के स्रोग्य होते हुए भी काम नहीं करना चाहते। इस प्रकार की बेरोजगारी प्राय: तीन कारणों से उत्पन्न होती है
⦁ कुछ व्यक्ति आलसी व कमजोर होने के कारण काम पसन्द नहीं करते जैसी भिखारी, साधु आदि।
⦁ कुछ व्यक्ति धनी होने के कारण काम करने की आवश्यकता ही नहीं समझते।
⦁ कुछ व्यक्ति उदासीन प्रकृति के होते हैं।
अनैच्छिक बेरोजगारी
जब स्वस्थ, योग्य एवं काम के इच्छुक व्यक्तियों को मजदूरी की प्रचलित दर पर काम नहीं मिल पाता तो इसे अनैच्छिक बेरोजगारी कहते हैं। कीन्स के अनुसार-“इस प्रकार की बेरोजगारी प्रभावपूर्ण माँग में कमी होने के कारण उत्पन्न होती है।”
भारत में बेरोजगारी का स्वरूप
भारत एक विकासशील देश है। अतः यहाँ ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी का स्वरूप एक-सा नहीं पाया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी के तीन मुख्य रूप दिखाई देते हैं-खुली बेरोजगारी, मौसमी बेरोजगारी और छिपी हुई बेरोजगारी। शहरों में पाई जाने वाली बेरोजगारी मुख्यतः दो प्रकार की है—औद्योगिक बेरोजगारी और शिक्षित बेरोजगारी।
ग्रामीण बेरोजगारी
भारत में ग्रामीण बेरोज़गारी का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है
1. खुली बेरोजगोरी– इससे हमारा अभिप्राय उन व्यक्तियों से है जिन्हें जीवन-यापन हेतु कोई कार्य नहीं मिलता। इसे स्थायी बेरोजगारी भी कहा जाता है। इस स्थायी बेरोजगारी के अन्तर्गत भारतीय गाँवों में बहुत सारे व्यक्ति बेरोजगार रहते हैं। स्थायी बेरोजगारी का मुख्य कारण कृषि पर जनसंख्या की अत्यधिक निर्भरता है।
2. मौसमी बेरोजगारी– इस प्रकार की बेरोजगारी वर्ष के कुछ महीनों में अधिक दिखाई देती है। श्रम की माँग में होने वाले परिवर्तनों में मौसमी बेरोजगारी की मात्रा भी परिवर्तित होती रहती है। सामान्यतः फसलों के बोने तथा काटने के समय श्रम की अधिक माँग रहती है, परन्तु अन्य मौसमों में रोजगार उपलब्ध नहीं होता। ग्रामीणों को सामान्यतया साल में 128 से 196 दिन तक बेरोजगार रहना पड़ता है।
3. छिपी हुई बेरोजगारी– जब श्रमिक की उत्पादकता शून्य अथवा ऋणात्मक होती है, तब उसे छिपी हुई या अदृश्य बेरोजगारी कहते हैं। इस प्रकार की बेरोजगारी का अनुमान लगाना कठिन है। , देश की लगभग 67% जनसंख्या कृषि में संलग्न है जबकि इतनी जन-शक्ति की वहाँ आवश्यकता नहीं है।
शहरी बेरोजगारी
भारत की शहरी बेरोजगारी का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है
1. औद्योगिक बेरोजगारी- औद्योगिक क्षेत्र में पाई जाने वाली बेरोजगारी को औद्योगिक बेरोजगारीकहा जाता है। इस प्रकार की बेरोजगारी चक्रीय बेरोजगारी तथा तकनीकी बेरोजगारी से प्रभावित होती है। शिक्षित बेरोजगारी
2. शिक्षा के प्रसार के साथ- साथ इस प्रकार की बेरोजगारी का प्रसार हो रहा है। देश में शिक्षित बेरोजगारी की स्थिति बड़ी करुण एवं दयनीय हो गई है।
‘भारत में प्रशिक्षितों की बेरोजगारी‘ नामक पुस्तक में स्थिति का मूल्यांकन इन शब्दों में किया गया है-“हमारे शिक्षित युवकों में बढ़ती हुई बेरोजगारी हमारे राष्ट्रीय स्थायित्व के लिए जबरदस्त खतरा है। उसे नियन्त्रित करने के लिए यदि समायोचित कदम नहीं उठाया गया तो भारी उथल-पुथल का अन्देशा बेरोजगारी एक अभिशाप है। इससे एक ओर राष्ट्र के बहुमूल्य साधनों की बरबादी होती है तो दूसरी ओर निर्धनता, ऋणग्रस्तता, औद्योगिक अशान्ति को जन्म मिलता है। सामाजिक दृष्टि से अपराधों में वृद्धि होती है तथा राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न होती है, जिसका समस्त समाज पर व्यापक दुष्प्रभाव पड़ता है। अतः राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों में कहा गया है कि आजीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करना नागरिकों का अधिकार है।