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“समाज चलनों तथा कार्य-प्रणालियों, अधिकार व पारस्परिक सहायता, अनेक समूहों तथा उनके विभाजनों, मानव-व्यवहार पर नियंत्रणों एवं स्वतंत्रताओं की व्यवस्था है। सदैव परिवर्तित होने वाली इस जटिल व्यवस्था को ही हम समाज कहते हैं। यह सामाजिक संबंधों का जाल है, जो सदैव परिवर्तित होता रहता है।” इस कथन की व्याख्या कीजिए।

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समाज सामाजिक संबंधों की अमूर्त व्यवस्था को कहते हैं। वह सामाजिक संबंधों का ताना-बाना अथवा जाल हैं। मैकाइवर एवं पेज ने भी समाज को इसी रूप में परिभाषित किया है। इनके शब्दों में, “समाज चलनों तथा कार्य-प्रणालियों, अधिकार व पारस्परिक सहायता, अनेक समूहों तथा उनके विभाजनों, मानव-व्यवहार पर नियंत्रणों एवं स्वतंत्रताओं की व्यवस्था है। इस सदैव परिवर्तित होने वाली जटिल व्यवस्था को ही इन्होंने समाज कहा हैं। समाज सामाजिक संबंधों का जाल है, जो सदैव परिवर्तित होता रहता है। मैकाइवर एवं पेज द्वारा प्रतिपादित समाज की इस परिभाषा से समाज के निम्नलिखित लक्षण स्पष्ट होते हैं-

⦁    चलन अथवा रीतियाँ-रीतियाँ या चलन (Usages) समाज द्वारा स्वीकृत वे पद्धतियाँ है जो व्यक्तियों को सामाजिक विरासत के रूप में अपने पूर्वजों से प्राप्त होती हैं। ये वे स्वीकृत पद्धतियाँ हैं जिन्हें समाज व्यवहार के क्षेत्र में ग्रहण करने योग्य समझता है। रीतियाँ उपयोगी मानी जाती हैं तथा इनमें समाज की शक्ति निहित होती है। इसी कारण प्रत्येक व्यक्ति इनका पालन निष्ठा से करता है।
⦁    कार्यविधियाँ अथवा कार्य-प्रणालियाँ–प्रत्येक समाज में सामाजिक व्यवस्था को उचित रूप से संचालित रखने के लिए कुछ तरीके तथा प्रणालियों होती हैं। ये प्रणालियाँ व्यक्तियों के कार्यकलापों को नियंत्रित करती है। मैकाइवर तथा पेज ने इन्हें संस्थाओं की संज्ञा दी है। संस्थाएँ वे नियम अथवा कार्य-प्रणालियाँ हैं, जो विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समाज द्वारा मान्य हैं।
⦁    प्रभुत्व या सत्ता–समाज का संगठन प्रभुत्व पर आधारित रहता है। यह प्रभुत्व समाज के कुछ सदस्यों के हाथ में रहती है। इनके प्रति समाज के सदस्यों में प्रेम, श्रद्धा और भक्ति की भावना रहती है। इन प्रभुतासंपन्न व्यक्तियों के अभाव में समाज में अराजकता फैलने की आशंका रहती है। प्रभुत्व के कारण ही व्यक्ति समाज की मान्यताओं को अनुकरण करते हैं।
⦁    पारस्परिक सहयोग-समाज एक व्यवस्था है, परंतु कोई भी व्यवस्था तब तक सुसंगठित नहीं हो सकती जब तक कि पारस्परिक सहयोग न हो। सामाजिक संबंधों के जाल की रचना में पारस्परिक सहयोग का विशेष हाथ रहता है; अतः समाज के लिए उसके सदस्यों में पारस्परिक सहयोग का होना परम आवश्यक है। समाज में पाया जाने वाला संघर्ष भी सहयोग के अंतर्गत ही होता है।
⦁    समूह और श्रेणियाँ–समाज एक अखंड व्यवस्था के रूप में विद्यमान नहीं है, अपितु इसके अन्दर अनेक समूहों एवं श्रेणियों का समावेश रहता है। वास्तव में, इन्हीं समूहों एवं श्रेणियों द्वारा समाज का निर्माण होता है।
⦁    मानव व्यवहार का नियंत्रण-प्रत्येक समाज में व्यक्ति तथा समूह पर नियंत्रण रखने वाले तत्त्व (जैसे जनरीति, रूढ़ि, धर्म और कानून आदि) होते हैं। ये व्यक्ति को मनचाहा आचरण करने से रोकते हैं। इनकी अवेहलना करने वाले व्यक्ति की समाज द्वारा उपेक्षा की जाती हैं या वह दंडित किया जाता है।
⦁    स्वतंत्रता-समाज में व्यक्ति को कुछ स्वतंत्रता अवश्य होनी चाहिए। स्वतंत्रता के अभाव में व्यक्ति का पूर्ण विकास नहीं हो सकता; अतः नियंत्रण के साथ-साथ समाज में स्वतंत्रता का होना भी आवश्यक है। आज अधिकांश विचारक यह मानते हैं कि नियंत्रण और स्वतंत्रता एक-दूसरे के विरोधी न होकर पूरक हैं। पूर्वोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि मैकाइवर तथा पेज की समाज की परिभाषा समाज के प्रमुख लक्षणों अथवा आधारों को स्पष्ट करने में पूर्णतः सफल रही है।

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