अवधान का अर्थ(Meaning of Attention)
सामान्य दृष्टिकोण से ‘अवधान या ‘ध्यान का अर्थ है-‘किसी काम में मन लगाना। भारतीय दर्शन में अवधान (ध्यान) को एक विलक्षण या अद्भुत शक्ति माना गया है। प्रत्येक कार्य को करते समय व्यक्ति अपनी चेतना, ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को लगाती है। उसका अपनी मानसिक शक्तियों या चेतना का वातावरण की किसी विशेष उत्तेजना पर केन्द्रित करना तत्कालीन आवश्यकता अथवा लक्ष्य सिद्धि पर निर्भर करता है। अपनी चेतना या मानसिक शक्तियों को जब व्यक्ति किसी विषय-वस्तु पर केन्द्रित करता है तो केन्द्रीकरण की यह प्रक्रिया या अवस्था अवधान कहलायेगी। वस्तुतः अवधान की यह प्रक्रिया व्यक्ति के उस कार्य-व्यापार की सफलता का आधार है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अवधान एक सामान्य मानसिक प्रक्रिया है।
अवधान की परिभाषा(Definition of Attention)
प्रमुख विद्वानों ने अवधान को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है –
⦁ जे० एस रॉस के अनुसार, “अवधान किसी विचार की वस्तु को मन के सम्मुख स्पष्ट रूप में रखने की प्रक्रिया है।”
⦁ मैक्डूगल के अनुसार, “ज्ञानात्मक प्रक्रिया पर पड़े प्रभाव की दृष्टि से विचार करने पर अवधान एक चेष्टा या प्रयास-भर है।”
⦁ डूमवाइल के अनुसार, “यह (अवधान) किन्हीं अन्य वस्तुओं की अपेक्षा किसी एक वस्तु पर चेतना का केन्द्रीकरण है।”
⦁ एन० एल० मन के कथनानुसार, “हम चाहे जिस दृष्टिकोण से विचार करें, अन्तिम विश्लेषण में अवधान एक प्रेरणात्मक प्रक्रिया है।”
अवधान के अर्थ एवं उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि “अवधान (ध्यान) किसी एक विचार को मानव मस्तिष्क में स्पष्टत: अंकित करने से सम्बन्धित या मानव चेतना की चुनाव सम्बन्धी अवरत एवं सुव्यवस्थित प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया मानव के मस्तिष्क में मौजूद विविध वस्तुओं में से कभी एक तो कभी अन्य को चेतना के ध्यान केन्द्र में पहुँचाती है।”
अवधान की विशेषताएँ(Characteristics of Attention)
अवधान के अर्थ एवं परिभाषा के आधार पर हम अवधान की कुछ विशेषताओं पर प्रकाश डाल सकते हैं। ये विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
(1) चंचलता – अवधान की प्रकृति चंचल है। हमारा अवधान हमेशा एक वस्तु से दूसरी वस्तु की ओर परिवर्तित होता रहता है। यह निरन्तर खिसकता रहता है। अवधान की चंचलता पर हुए प्रयोगों से सिद्ध होता है कि हमारा ध्यान किसी वस्तु या विचार पर अधिक समय तक नहीं टिकता। ध्यान परिवर्तन की अवधि 9 से 10 सेकण्ड तक बतायी गयी है।
(2) चयनात्मक प्रक्रिया – व्यक्ति अपने चारों तरफ के वातावरण में विभिन्न तत्त्वों से घिरा है. किन्तु वह एक समय पर उनमें से सिर्फ एक तत्त्व की ओर ही ध्यान केन्द्रित कर सकता है। इसीलिए अवधान की वस्तु का चयन किया जाता है। हमारी चेतना की सीमा के भीतर की विभिन्न वस्तुओं में से हमारा मस्तिष्क एक वस्तु को चुन लेता है और वही चेतना के ध्यान-केन्द्र में पहुँच जाती है। चयन की यह प्रक्रिया हर समय चलती रहती है।
(3) मानसिक सक्रियता – किसी वस्तु पर ध्यान केन्द्रित करते समय हमारा मस्तिष्क सक्रिय हो जाता है और वह कोई-न-कोई क्रिया अवश्य करता है। इस प्रकार अवधान में मानसिक प्रक्रियाएँ सक्रिय रहती हैं।
(4) संकुचित क्षेत्र – अवधान का क्षेत्र काफी संकीर्ण अथवा संकुचित होता है। मानव-मस्तिष्क एक साथ अनेक वस्तुओं पर ध्यान केन्द्रित नहीं कर सकता।
(5) प्रयोजनशीलता – अवधान एक उद्देश्यपूर्ण क्रिया है। अवधान का कोई-न-कोई लक्ष्य या प्रयोजन अवश्य होता है। जिसकी प्रेरणावश व्यक्ति का ध्यान उस वस्तु या उद्दीपक की ओर केन्द्रित होता है। यह उद्देश्य या लक्ष्य बौद्धिक हो सकता है; जैसे–किसी अमूर्त विचार की ओर ध्यान केन्द्रित होना; अथवा संवेदनात्मक हो सकता है; जैसे-गाने, दृश्य या सुगन्ध की तरफ ध्यान लगना; और बौद्धिक एवं संवेदनात्मक दोनों भी हो सकता है, जैसे-शतरंज के खेल में ध्यान का केन्द्रण।
(6) तत्परता – तत्परता का गुण अवधान की प्रक्रिया में सहायता करता है। अवधान के लिए व्यक्ति का मानसिक रूप से तत्पर होना आवश्यक है। यदि व्यक्ति किसी वस्तु पर ध्यान लगाने के लिए मानसिक रूप से तत्पर (तैयार) नहीं है तो उस वस्तु पर शीघ्र ध्यान न लग सकेगा।
(7) अन्वेषणात्मकता – अवधान में अन्वेषणात्मकता की विशेषता पायी जाती है। जिस नवीन वस्तु की ओर हमारा अवधान खिंचता है, उसके विषय में हम अन्वेषण या खोज करने लगते हैं तथा उसकी अच्छाई-बुराइयों की छानबीन का प्रयास करने लगते हैं।
(8) शारीरिक समायोजन – अवधान की प्रक्रिया समायोजन (Adjustment) से सम्बन्धित है। मानसिक समायोजन के साथ-साथ अवधान में शारीरिक समायोजन भी होता है। इसके यह तीन प्रकार है :
(i) ग्राहक समायोजन – जब व्यक्ति किसी उत्तेजना के प्रति ध्यान लगाता है तो उससे जुड़े ग्राहक अंग या ज्ञानेन्द्रियाँ (आँख, नाक, कान, जिह्वा तथा त्वचा) उस उत्तेजना से सम्बद्ध हो जाते हैं और विशिष्ट रूप से समायोजित हो जाते हैं।
(ii) शरीर-मुद्रा समायोजन – अवधान की प्रक्रिया में जिस तरफ से उत्तेजना प्राप्त होती है, व्यक्ति अपना शरीर झुका लेता है। ध्यानपूर्वक कोई खास बात सुनते समय नेत्र श्रोता की ओर टकटकी लगाते हैं, गर्दन उस ओर झुक जाती है तथा शरीर के अंग हिलना-डुलना बन्द कर देते हैं।
(iii) मांसपेशीय समायोजन – अवधान के दौरान मांसपेशियाँ एक तनाव की दशा में आ जाती हैं और इस वजह से अधिक सक्रिय हो जाती हैं। इससे ध्यान केन्द्रित करने में मदद मिलती है।
(9) त्रिपक्षीय प्रक्रिया – एक मानसिक प्रक्रिया होने के कारण अवधान का सीधा सम्बन्ध मन से है। मन के तीन विभिन्न पक्ष हैं-ज्ञानात्मक, भावात्मक तथा क्रियात्मक पक्ष। ध्यान के माध्यम से व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त होता है, उसके भीतर भावनाओं का उदय होता है और किसी-न-किसी क्रिया का जन्म भी होता है।
(10) विश्लेषणात्मकता और संश्लेषणात्मकता – अवधान के अन्तर्गत उत्तेजनाओं के विविध पक्षों का विश्लेषण एवं संश्लेषण होता रहता है। किसी वस्तु-विशेष की ओर ध्यान केन्द्रित होने पर मस्तिष्क उससे सम्बन्धित विभिन्न तत्त्वों या पक्षों का विश्लेषण करता है; जैसे—किसी पौधे के सामने आने पर उसके तने, पत्तियों, शाखाओं, प्रशाखाओं, पुष्पों तथा फलों की ओर अलग-अलग ध्यान जाता है। तत्पश्चात् इन सभी अंगों को मिलाकर पौधे का सम्पूर्ण स्वरूप यानी पौधे के संश्लेषित पक्ष की ओर भी ध्यान देते हैं।