धरातल पर अपरदन के बाह्य कारकों में नदियों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। नदियों का जल ढाल की ओर प्रवाहित होता है। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि नदियाँ प्रतिवर्ष समुद्रों में लगभग 27,460 घन किमी जलराशि बहाकर लाती हैं। नदियों में जल की आपूर्ति हिमानियों एवं वर्षा से होती है। इस प्रकार “स्वाभाविक एवं गम्भीर रूप से धरातल पर बहने वाला जल नदी कहलाता है।” धरातल पर जितनी भी जलधाराएँ हैं, वे सभी स्वतन्त्र रूप से बहती हुई मिल जाती हैं। इस प्रकार नदियों का यह अपवाह-क्षेत्र उन सभी नदियों का कार्य-क्षेत्र होता है, जिसे नदी-बेसिन के नाम से पुकारते हैं।
नदी अथवा प्रवाहित जल के कार्य
नदी, अपरदन का एक शक्तिशाली कारक है। नदियाँ अपघर्षण तथा सन्निघर्षण द्वारा अपनी घाटियों को काट-छाँट कर चौड़ा करती जाती हैं तथा मलबे को प्रवाहित कर अन्यत्र स्थान पर जमा कर देती हैं। इनके फलस्वरूप धरातल पर विभिन्न स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। जिनका विवरण निम्नवत् है
1. नदी का अपरदनात्मक कार्य (Erosional Work of River)-नदी द्वारा अपरदन कार्य दो रूपों में सम्पन्न होता है-(अ) रासायनिक एवं (ब) भौतिक या यान्त्रिक अपरदन। रासायनिक अपरदन में नदी-जल घुलनशील तत्त्वों द्वारा चट्टानों को अपने में घुलाकर काटता रहता है, जबकि यान्त्रिक अपरदन में नदी-तल या किनारों का अपरदन अपरदनात्मक तत्त्वों से होता रहता है। नदियों द्वारा अपरदन की इस क्रिया में पाश्विक अपरदन तथा लम्बवत् अपरदन होता है। इस प्रकार नदी द्वारा अपरदन कार्य बड़ा ही व्यापक है। उद्गम से लेकर मुहाने तक नदी के कार्यों को तीन भागों में विभाजित किया जाता है-
⦁ पर्वतीय भाग या युवावस्था,
⦁ मैदानी भाग या प्रौढ़ावस्था तथा
⦁ डेल्टाई भाग या वृद्धावस्था।
2. नदी का परिवहन कार्य (Transportational Work of River)-नदी का परिवहन कार्य भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। नदी के जल के साथ बहने वाले शिलाखण्ड आपस में टकराकर चलते रहते हैं तथा नदी-तल को भी कुरेदते हुए प्रवाहित होते हैं। इससे इनका आकार छोटा होता जाता है। इस प्रकार नदियाँ कंकड़, पत्थर, बजरी, रेत, मिट्टी आदि भारी मात्रा में जमा करती जाती हैं। नदियाँ जब मैदानी भागों में प्रवेश करती हैं तो उनके वेग एवं तीव्रता में कमी आ जाती है। इससे नदियाँ अपनी तली तथा किनारों पर निक्षेप करते हुए प्रवाहित होती हैं। इसीलिए पर्वतपदीय क्षेत्रों में बड़े-बड़े शिलाखण्ड पाये जाते हैं। नदी द्वारा परिवहन करने की क्षमता जल की मात्रा एवं उसकी गति पर निर्भर करती है।
3. नदी का निक्षेपणात्मक कार्य (Depositional work of River)-नदी की जलधारा अपंरदित पदार्थों को प्रवाहित करती हुई मार्ग में जहाँ कहीं भी जमाव कर देती है, वह निक्षेपण कहलाता है। निक्षेपण अपरदन क्रिया का प्रतिफल होता है। इस जमाव में बालू, मिट्टी, कंकड़, पथरी, बजरी आदि सभी छोटे-बड़े पदार्थ होते हैं जो नदियों द्वारा झीलों, सागरों अथवा महासागरों तक ले जाये जाते हैं। जैसे ही नदियाँ मैदानी क्षेत्रों में प्रवेश करती हैं, उनमें भारी पदार्थों को वहन करने की क्षमता नहीं रह पाती। इसी कारण अनुकूल दशा मिलते ही नदियाँ अपनी तली एवं पाश्र्वो पर अवसाद का निक्षेप करने लगती हैं। भारी पदार्थों को नदियाँ पर्वतीय क्षेत्रों में वहन करती हैं तथा उसका निक्षेप पर्वतपदीय क्षेत्रों में करती हैं। मैदानी क्षेत्रों में हल्के पदार्थों का ही निक्षेप हो पाता है। जलाशयों में मिलने से पहले नदियाँ विस्तृत डेल्टाओं का निर्माण करती हैं, क्योंकि यहाँ तक बारीक मिट्टी तथा बालू ही पहुँच पाती है। डेल्टाई क्षेत्रों में नदियों का प्रवाह मार्ग समुद्र तल के लगभग समानान्तर हो जाता है; अतः यहाँ जल चारों ओर फैल जाता है। निक्षेपण की क्रिया में विभिन्न भू-आकृतियों की रचना होती है। जलोढ़ पंख, विसर्पण, छाड़न झील, तट-बाँध, वेदिका, बाढ़ के मैदान एवं नदी की चौड़ी घाटी प्रमुख भू-आकृतियाँ हैं।
नदी की अवस्थाएँ
नदियाँ अपने अपरदन, परिवहन एवं निक्षेपण का कार्य अपनी विभिन्न अवस्थाओं के अन्तर्गत सम्पादित करती हैं। बहता हुआ जल अथवा नदी अपने उद्गम स्थल (पर्वतीय क्षेत्र) से लेकर अपने संगम स्थल (मुहाना) तक तीन अवस्थाओं से गुजरती है तथा अनेक स्थलाकृतियों का निर्माण करती है, जिसका विवरण निम्नलिखित है–
1. युवावस्था (Youthful Stage)-पर्वतीय क्षेत्रों में वर्षा तथा हिमानी के पिघलने से छोटी- छोटी जलधाराओं का जन्म होता है। इस समय नदियों में जल की मात्रा कम तथा ढाल तीव्र होने के कारण वेग अधिक होता है। इस प्रकार युवावस्था में नदियाँ ऊबड़-खाबड़ पर्वतीय क्षेत्र में प्रवाहित होती हैं। पर्वतीय भागों में मुख्य नदी धीरे-धीरे अपनी घाटी को गहरा करना प्रारम्भ कर देती है तथा इसमें अनेक सहायक नदियाँ आकर मिलने लगती हैं। इस अवस्था में नदियाँ अपने तल का अधिक कटाव करती हैं जिससे गॉर्ज, कन्दरा, जल-प्रपात, जल-गर्तिकाएँ, कुण्ड आदि स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। युवावस्था में नदी निम्नलिखित भू-आकृतियाँ बनाती है
(i) ‘v’ आकार की घाटी-नदियों द्वारा निर्मित गहरी एवं सँकरी घाटियों को ‘v’ आकार की घाटी कहते हैं। इनका आकार अंग्रेजी वर्णमाला के.’V’ अक्षर की भाँति होता है, जिससे इन्हें v’ आकार की घाटी कहते हैं। इनके किनारे तीव्र ढाल वाले होते हैं। ये घाटियाँ किनारों पर चौड़ी तथा तली में अधिक संकुचित होती हैं। कुछ नदियाँ अपनी घाटी को और अधिक गहरा करती जाती हैं। इस अत्यधिक गहरी ‘V’ आकार की घाटी को कन्दरा (Gorge) कहते हैं। उदाहरण के लिए-भारत की सिन्धु, सतलुज, नर्मदा, कृष्णा, चम्बल आदि नदियाँ अनेक स्थानों पर कन्दराओं का निर्माण करती हैं। भाखड़ा बॉध तो सतलुज नदी की कन्दरा पर ही निर्मित है। कम चौड़ी, अधिक गहरी तथा अधिक सँकरी घाटी को कैनियन कहते हैं।
(ii) जल-प्रपात या झरना (Waterfal)- यह नदी अपरदन द्वारा निर्मित प्राकृतिक सौन्दर्य में वृद्धि करने वाली प्राकृतिक स्थलाकृति है। जब कोई नदी उच्च पर्वत-श्रेणियों से नीचे की ओर गिरती है तो ढाल में असमानता के कारण जल-प्रपातों का निर्माण करती है। नदी का जल मार्ग में पड़ने । वाली कठोर चट्टानों को नहीं काट पाता, परन्तु कोमल चट्टानों को आसानी से काट देता है। कुछ समय पश्चात् कठोर चट्टान को भी सहारा न मिल पाने के कारण वह शिलाखण्ड भी टूटकर गिर जाता है। इस प्रकार, “नदी प्रवाह की ऐसी असमानता जिसमें नदी का जल एकदम ऊपर से नीचे की ओर गिरता है, जल-प्रपात या झरना कहलाता है।” जल निरन्तर शैलों को काटता रहता है जिससे इन प्रपातों की ऊँचाई कम होने लगती है।
2. प्रौढ़ावस्था (Mature Stage)-नदी जब युवावस्था को पार कर मैदानी भागों में प्रवेश करती है। तो यह उसकी प्रौढ़ावस्था होती है। इस समय नदी का वेग कुछ कम हो जाता है तथा नदी द्वारा किये जाने वाले कटाव कार्य में कुछ कमी आती है। इस अवस्था में नदी अपनी घाटी को चौड़ा करना प्रारम्भ कर देती है।.नदी इस समय पाश्विक अपरदन अधिक करती है। इस अवस्था में नदी अपने साथ लाये हुए मलबे को जमा करना प्रारम्भ कर देती है। इससे जलोढ़-पंख, जलोढ़-शंकु, गोखुर झीलें, बाढ़ के मैदान आदि स्थलाकृतियों का निर्माण होता है। इस अवस्था में नदी मैदानी भागों में बहुत मन्द गति से प्रवाहित होती है जिससे प्रवाह मोड़ों एवं बाढ़ के मैदानों का निर्माण करते हुए नदी आगे बढ़ती है। प्रौढ़ावस्था में नदी निम्नांकित भू-आकृतियों का निर्माण करती है
(i) जलोढ़ पंख (Alluvial Fans)-पर्वतीय क्षेत्रों से जैसे ही नदी मैदानी क्षेत्रों में प्रवेश करती है तो नदी की प्रवाह गति मन्द पड़ जाती है, जिसके कारण उसकी अपवाह क्षमता भी कम रह जाती है। अतः नदी भारी पदार्थों को अपने साथ प्रवाहित करने में असमर्थ रहती है और उनका निक्षेप करना प्रारम्भ कर देती है। पर्वतपदीय भागों में नदी बजरी, पत्थर, कंकड़, बालू, मिट्टी आदि पदार्थों का निक्षेपण शंकु के रूप में करती है। इनके बीच से होकर अनेक छोटी-छोटी धाराएँ निकल जाती हैं। इस प्रकार के अनेक शंकु मिलकर पंखे जैसी आकृति का निर्माण करते हैं जिससे उन्हें जलोढ़ पंख का नाम दिया जाता है।
(ii) नदी विसर्प अथवा नदी मोइ (River Meanders)-जब नदी घाटी में उतरती है तो उंसका प्रवाह मन्द पड़ जाता है। इससे नदियों के अवसाद ढोने की शक्ति कम हो जाती है। अत: ऐसी दशा में नदियाँ अपने साथ लाये हुए अवसाद को किनारों पर छोड़ती जाती हैं, परन्तु उसके मार्ग में थोड़ा-सा भी अवरोध उसके प्रवाह को आसानी से इधर-उधर मोड़ देता है। ये मोड़ ही नदी विसर्प कहलाते हैं।
(iii) धनुषाकार झीलें अथवा गोखुर झीलें (Oxbow Lakes)-प्रारम्भ में नदी-मोड़ या विसर्प छोटे होते हैं, परन्तु धीरे-धीरे इनका आकार बड़ा तथा घुमावदार होता जाता है। जब ये विसर्प अधिक बड़े तथा घुमावदार होते हैं, तब नदी घुमावदार दिशा में प्रवाहित न होकर सीधे ही प्रवाहित होने लगती है तथा नदी का यह मोड़ कटकर मुख्य धारा से बिल्कुल अलग हो जाता है। इससे एक झील-सी निर्मित हो जाती है जिसकी आकृति धनुष के आकार में अथवा गाय के खुर के समान हो । जाती है। अत: इसे धनुषाकार झील अथवा छाड़न या गोखुरं झील कहते हैं।
(iv) बाढ़ के मैदान (Flood Plains)-मैदानी प्रदेशों में नदियों की प्रवाह शक्ति क्षीण हो जाने के कारण उसकी तली में मलबा एकत्रित होना प्रारम्भ हो जाता है जिससे नदी को जल दोनों किनारों की ओर दूर तक फैल जाता है। एक समय ऐसा आता है कि नदी और अधिक जल को धारण करने की क्षमता नहीं रख पाती तथा यह जल किनारों को पार कर बाहर की ओर फैल जाता है। एवं नदी में बाढ़ आ जाती है। जैसे ही बाढ़ समाप्त होती है तो बालू एवं कांप मिट्टी के निक्षेप बाढ़-क्षेत्र पर छा जाते हैं तथा इसमें लहरें-सी पड़ जाती हैं। इन्हें ही बाढ़ के मैदान के नाम से जाना जाता है।
(v) प्राकृतिक तटबन्ध (Natural Levees)-नदी जब बाढ़ से युक्त होती है तो वह अपने किनारों पर बजरी, कंकड़, बालू तथा मिट्टी आदि का जमाव कर देती है. जिससे किनारों पर ऊँचे-ऊँचे बाँध बन जाते हैं। इन्हें ही प्राकृतिक तटबन्ध के नाम से पुकारा जाता है।