समुद्रतटीय प्रदेशों में सागरीय तरंगें अपरदन का महत्त्वपूर्ण साधन होती हैं। इस कार्य में समुद्री धाराएँ, ज्वारभाटा और सागरों में उठे तूफान भी सहयोग प्रदान करते हैं। समुद्रतटीय प्रदेशों में इस प्रकार होने वाला अपरदन ही विभेदी अपरदन कहलाता है। यह अपरदन निम्नलिखित कारकों द्वारा प्रभावित होता है|
⦁ सागरीय तरंगों का आकार एवं शक्ति।
⦁ ज्वारभाटा की तीव्रता।
⦁ जलस्तर के मध्य स्थित तट की ऊँचाई।
⦁ चट्टानों की संरचना एवं संगठन।
⦁ जल की मात्रा एवं गहराई।
सागरीय तरंगों द्वारा तीन प्रकार से अपरदन कार्य सम्पन्न होता है
⦁ सागरीय तरंगें जब अपनी पूरी शक्ति के साथ तट की ओर बढ़ती हैं तो चट्टानों की दरारो में हवा बड़ी तेजी से भरती है। चट्टानों से टकराकर जब सागरीय तरंग वापस होती हैं, तब यह दबी हुई हवा बहुत तेजी से फैलकर चट्टान को तोड़ देती है।
⦁ जब तरंगें बजरी और बालू से भरी होती हैं, तब तटीय चट्टानों को तेजी से अपरदित करती हैं। क्योंकि इनके साथ जल के अतिरिक्त चट्टानी पदार्थ भी अपरदन में सहयोग प्रदान करता है।
⦁ चूनायुक्त चट्टानों को सागरीय तरंगें जल के साथ घोलकर अपरदन करती हैं।
स्थलाकृतियाँ-सागरीय तरंगों की अपरदन क्रिया से समुद्री भृगु, गुफा, स्टैक तथा मेहराब आदि स्थलाकृतियाँ निर्मित होती हैं।
1. सागरीय भृगु-समुद्र के सीधे खड़े तट को समुद्री भृगु कहते हैं। प्रारम्भ में सागरीय तरंगें तटीय चट्टानों को अपरदित करके खाँचे बनाती हैं। धीरे-धीरे जब यह खाँचे चौड़े और गहरे हो जाते हैं तो इनका आकार खोखला हो जाता है और तटीय चट्टान का ऊपरी भाग ढहकर गिर जाता है। इस प्रकार समुद्री भृगु अपरदन प्रक्रिया से पीछे हटते रहते हैं। भारत के पश्चिमी तट पर यह स्थलाकृति देखी जाती है।
2. समुद्री गुफा-जब ऊपरी चट्टान कठोर तथा निचली चट्टान कोमल होती है तो सागरीय तरंगें नीचे की कोमल चट्टान का कटाव कर देती हैं तथा ऊपर की कठोर चट्टान बनी रहती है। इस प्रकार समुद्री गुफा बन जाती है। ऊपरी कठोर चट्टान इतनी दृढ़ होती है कि वह बिना आधार के भी टिकी रहती है।
3. समुद्री मेहराब-जब सागरीय तरंगें गुफा के दोनों ओर से अपरदन करती हैं तो चट्टान के आर-पार एक सुरंग बन जाती है और चट्टान का ऊपरी भाग पुल की तरह बना रहता है। इसे समुद्री मेहराब या प्राकृतिक पुल (Natural Bridge) कहते हैं।