(अ) प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘गद्य-खण्ड’ में संकलित डॉ० राजेन्द्र प्रसाद द्वारा लिखित ‘भारतीय संस्कृति’ नामक निध से उद्धृत है। अथवा निम्नवत् लिखेंपाठ का नाम-भारतीय संस्कृति। लेखक का नाम–डॉ० राजेन्द्र प्रसाद
(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या–प्रस्तुत गद्य-अंश में लेखक कह रहा है कि वर्तमान युग विज्ञान की उन्नति का युग है। विज्ञान की उन्नति से मनुष्य को असीमित शंक्ति प्राप्त हो गयी है, किन्तु विज्ञान से प्राप्त शक्ति का सही उपयोग नहीं हो रहा है। इस शक्ति का उपयोग एक व्यक्ति अथवा समूह के उत्थान के लिए तथा दूसरे व्यक्ति और समूह को गिराने में हो रहा है। लेखक का कहना है कि समाज में या राष्ट्र में ऐसी भावना उत्पन्न होनी चाहिए, जिससे विज्ञान की शक्ति के इस दुरुपयोग को रोकने के लिए अहिंसात्मके त्याग की भावना को बढ़ावा दिया जा सके।
द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या-प्रस्तुत गद्यांश में डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जी कहते हैं कि यदि विज्ञान की शक्ति पर प्रेम और अहिंसा जैसे नैतिक मूल्यों का नियन्त्रण नहीं लगाया गया तो यह मानव का हित नहीं कर सकती। नैतिक बन्धन से विज्ञान की असीमित शक्ति सीमित हो सकती है और उसका उपयोग विनाश के लिए न कर निर्माण के लिए किया जा सकता है। आज विज्ञान की शक्ति को कल्याण की दिशा में प्रेरित करना अत्यन्त आवश्यक हो गया है। |
(स)
⦁ विज्ञान के द्वारा प्रदत्त अतुलनीय शक्ति का उपयोग एक समूह और व्यक्ति के उत्थान तथा दूसरे समूह और व्यक्ति का पतन करने के लिए हो सकता है। इस शक्ति का प्रयोग अहिंसात्मक त्याग की भावना से किया जाना चाहिए।
⦁ नैतिकता के अंकुश के बिना प्राप्त शक्ति मानव और मानवता के लिए हितकारी नहीं होती। यही उस असीमित शक्ति को सीमित कर सकती है और उसके दुरुपयोग को नियन्त्रित भी कर सकती है।
⦁ प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने विज्ञान की संहारक नीति को नियन्त्रित करने का सुझाव दिया है तथा इसके नियन्त्रण के लिए अहिंसा से परिपूर्ण त्याग की भावना को आवश्यक बताया है। मैं लेखक के इस कथन से शत-प्रतिशत सहमत हूँ।
⦁ विज्ञान के सम्बन्ध में लेखक का विचार है कि उसने मनुष्य के हाथों में अद्भुत और अतुल शक्ति दी है। इस शक्ति का उपयोग व्यक्ति और समूह के उत्कर्ष के लिए किया जाना चाहिए। इसके लिए व्यक्ति को अपने अन्दर अहिंसा-त्याग की भावना को प्रोत्साहित करना चाहिए।