[ बिसरत = भूलना। सघन = गहन। कुंज = छोटे वृक्षों का समूह। छाँहीं = छाया। दह्यौ = दही। सजायौ = सजा हुआ, सहित। हित = स्नेह, प्रेम। सिरात = बीत जाना। जदु-तात = कृष्ण।]
प्रसंग-प्रस्तुत पद में उद्धव ने मथुरा पहुँचकर श्रीकृष्ण को वहाँ की सारी स्थिति बतायी, जिसे सुनकर श्रीकृष्ण भाव-विभोर हो गये। इस पर वे उद्धव से अपनी मनोदशा व्यक्त करते हैं।
व्याख्या-श्रीकृष्ण ने उद्धव से ब्रजवासियों की दीन दशा सुनी और उन्हीं के ध्यान में खो गये। वे उद्धव से कहते हैं कि मैं ब्रज को भूल नहीं पाता हूँ। वृन्दावन और गोकुल के वन-उपवन संभी मुझे याद आते रहते हैं। वहाँ के घने कुंजों की छाया को भी मैं भूल नहीं पाता। नन्द बाबा और यशोदा मैया को देखकर मुझे जो सुख मिलता था, वह मुझे रह-रहकर स्मरण हो आता है। वे मुझे मक्खन, रोटी और भली प्रकार जमाया हुआ दही कितने प्रेम से खिलाते थे ? ब्रज की गोपियों और ग्वाल-बालों के साथ खेलते हुए मेरे सभी दिन हँसते हुए बीता करते थे। ये सभी बातें मुझे बहुत याद आती हैं। सूरदास जी ब्रजवासियों को धन्य मानते हैं। और उनके भाग्य की सराहना करते हैं; क्योंकि श्रीकृष्ण को उनके हित की चिन्ता है और श्रीकृष्ण इन ब्रजवासियों को प्रति क्षण ध्यान करते हैं।
काव्यगत सौन्दर्य-
⦁ यद्यपि कृष्ण का व्यक्तित्व अलौकिक है किन्तु प्रेमवश वह भी प्रियजनों की याद में साधारण मनुष्य की भाँति द्रवित हो रहे हैं। ब्रज की स्मृति उन्हें अत्यधिक भाव-विह्वल कर रही है।
⦁ भाषा-सरल-सरस ब्रज।
⦁ शैली-मुक्तक।
⦁ छन्द-गेय पदः
⦁ रस-शृंगार।
⦁ शब्दशक्ति-अभिधा और व्यंजना।
⦁ गुण-माधुर्य।
⦁ अलंकार-‘ब्रज बिसरत’, बृन्दाबन गोकुल बन उपबन’ में अनुप्रास, उद्धव के द्वारा योग का सन्देश भेजने तथा यह कहने में कि ‘मुझसे ब्रज नहीं भूलता’ में विरोधाभास है।
⦁ भावसाम्य–यही भाव रत्नाकर जी ने इस प्रकार व्यक्त किया है
सुधि ब्रजवासिनी की, दिवैया सुखरासिनी की,
उधौ नित हमकौं बुलावन कौं आवती।