[ भव-बाधा = सांसारिक दु:ख। हरौ = दूर करो। नागरि = चतुर। झाई परै = प्रतिबिम्ब, झलक पड़ने पर। स्यामु = श्रीकृष्ण, नीला, पाप। हरित-दुति = (1) हरी कान्ति, (2) प्रसन्न, (3) हरण हो गयी है द्युति । जिसकी; अर्थात् फीका, कान्तिहीन।]
सन्दर्भ–प्रस्तुत दोहा हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी के ‘काव्य-खण्ड’ में संकलित रीतिकाल के रससिद्ध कवि बिहारी द्वारा रचित ‘बिहारी सतसई’ के ‘भक्ति’ शीर्षक से अवतरित है।
प्रसंग-कवि ने अपने ग्रन्थ के प्रारम्भ में राधा जी की वन्दना की है।
व्याख्या-
⦁ वह चतुर राधिका जी मेरे सांसारिक कष्टों को दूर करें, जिनके पीली आभा वाले (गोरे).शरीर की झाँई (प्रतिबिम्ब) पड़ने से श्याम वर्ण के श्रीकृष्ण हरित वर्ण की द्युति वाले; अर्थात् हरे रंग के हो जाते हैं।
⦁ वे चतुर राधिका जी मेरी सांसारिक बाधाओं को दूर करें, जिनके शरीर की झलक पड़ने से भगवान् कृष्ण भी प्रसन्नमुख (हरित-कान्ति) हो जाते हैं।
⦁ हे चतुर राधिका जी! आप मेरे सांसारिक कष्टों को दूर करें, जिनके ज्ञानमय (गौर) शरीर की झलकमात्र से मन की श्यामलता (पाप) नष्ट हो जाती है।
⦁ वह चतुर राधिका जी मेरी सांसारिक बाधाओं को दूर करें, जिनके गौरवर्ण शरीर की चमक पड़ने से श्रीकृष्ण भी फीकी कान्ति वाले हो जाते हैं।
काव्यगत सौन्दर्य-
⦁ कवि ने प्रस्तुत दोहे में मंगलाचरण रूप में राधा की वन्दना की है।
⦁ नील और पीत वर्ण मिलकर हरा रंग हो जाता है। यहाँ बिहारी का चित्रकला-ज्ञान प्रकट हुआ है।
⦁ भाषाब्रज।
⦁ शैली-मुक्तक।
⦁ रस-श्रृंगार और भक्ति।
⦁ छन्द-दोहा।
⦁ अलंकार-‘हरौ, राधा नागरि’ में अनुप्रास, ‘भव-बाधा’, ‘झाईं तथा ‘स्यामु हरित-दुति’ के अनेक अर्थ होने से श्लेष अलंकार की छटा मनमोहक बन पड़ी है।
⦁ गुण–प्रसाद और माधुर्य।
⦁ बिहारी ने निम्नलिखित दोहे में भी अपने रंगों के ज्ञान का परिचय दिया है—
अधर धरत हरि कै परत, ओठ डीठि पट जोति।
हरित बाँस की बाँसुरी, इन्द्रधनुष सँग होति ॥