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तौ लगु या मन-सदन मैं, हरि आर्दै किहिं बाट ।
विकट जटे जौ लगु निपट, खुटै न कपट-कपाट ॥

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[मन-सदन = मनरूपी घर। बाट = मार्ग। जटे = जड़े हुए। तौ लगु = तब तक। जौ लगु = जब तक। निपट = अत्यन्त। खुर्दै = खुलेंगे। कपट-कपाट = कपटरूपी किवाड़।]

प्रसंग-इस दोहे में कवि ने ईश्वर को हृदय में बसाने के  लिए कपट का त्याग करना आवश्यक बताया है।

व्याख्या-कविवर बिहारी का कहना है कि इस मनरूपी घर में तब तक ईश्वर किस मार्ग से प्रवेश कर सकता है, जब तक मनरूपी घर में दृढ़ता से बन्द किये हुए कपटरूपी किवाड़ पूरी तरह से नहीं खुल जाते; अर्थात् हृदय से कपट निकाल देने पर ही हृदय में ईश्वर का प्रवेश व निवास सम्भव है।

काव्यगत सौन्दर्य-

⦁    ईश्वर की प्राप्ति निर्मल मन से ही सम्भव है। इस भावना की कवि ने यहाँ उचित अभिव्यक्ति की है।
⦁    भाषा-ब्रज।
⦁    शैली-मुक्तक।
⦁    रस-भक्ति।
⦁    छन्द-दोहा। “
⦁    अलंकार–‘मन-सदन’, ‘कपट-कपाट’ में रूपक तथा अनुप्रास।
⦁    गुण–प्रसाद।

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