[स्वारथु = स्वार्थी। सुकृतु = पुण्य कार्य। श्रम वृथा = व्यर्थ को परिश्रम। बिहंग = पक्षी। बाजि = (i) बाज पक्षी तथा (ii) राजा जयसिंह। पानि = हाथ। पच्छीनु = पक्षियों को, अपने पक्ष वालों को।
प्रसंग-इस दोहे में कवि ने अन्योक्ति के माध्यम से अपने आश्रयदाता राजा जयसिंह को समय पर चेतावनी दी है। इस दोहे में उसे हिन्दू राजाओं पर आक्रमण न करने के लिए अन्योक्ति द्वारा सचेत किया .. गया है।
व्याख्या–
⦁ हे बाज! तू अपने मन में अच्छी तरह सोच-विचार कर देख ले कि तू शिकारी के हाथ में पड़कर अपनी जाति के पक्षियों को मारता है। इसमें न तो तेरा स्वार्थ है, न यह अच्छा कार्य ही है, तेरा श्रम भी व्यर्थ ही जाता है; क्योंकि तेरे परिश्रम का फल तुझे न मिलकर तेरै मालिक को प्राप्त होता है। तू दूसरों के हाथ की कठपुतली बनकर अपनी जाति के पक्षियों का वध कर रहा है। अब तू मेरी सलाह मानकर अपनी जाति के पक्षियों का वध मत कर।
⦁ हे राजा जयसिंह! तू विचार कर देख ले कि तू बाजे पक्षी की तरह अपने शासक औरंगजेब के हाथ की कठपुतली बनकर अपने साथी इन हिन्दू राजाओं पर आक्रमैण कॅर रहा है। इस कार्य को करने से तेरे स्वार्थ की पूर्ति नहीं होती है, जीता हुआ राज्य तुझे नहीं मिलता। युद्ध में राजाओं का वध करना कोई पुण्य का कार्य भी नहीं है। तुम्हारे श्रम का फल तुम्हें न मिलने से तुम्हारा श्रेम व्यर्थ हो जाता है। इसलिए तू औरंगजेब के कहने से अपने पक्ष के हिन्दू राजाओं पर आक्रमण करके उनका वध मत कर।। |
काव्यगत सौन्दर्य-
⦁ राजा जयसिंह ने औरंगजेब के कहने से अनेक हिन्दू राजाओं के विरुद्ध युद्ध किया था। उन दोनों में यह तय था कि जीता हुआ राज्य तो औरंगजेब का होगा और विजित राज्य की लूट में मिला हुआ धन जयसिंह का। अत: उसे चेतावनी देना उसके आश्रित कवि (बिहारी) का कर्तव्य है।
⦁ यहाँ बाज़ पक्षी-जयसिंह का, शिकारी-औरंगजेब का तथा पक्षी अपने पक्ष के हिन्दू राजाओं का प्रतीक है। यह दोहा इतिहास की वास्तविक घटना पर आधारित होने के कारण विशेष महत्त्व रखता है।
⦁ भाषा-ब्रज।
⦁ शैली-मुक्तक।
⦁ रस-शान्त।
⦁ छन्द-दोहा।
⦁ अलंकार-बाज पक्षी के माध्यम से राजा जयसिंह को सावधान किया गया है; अत: अन्योक्ति अलंकार है। ‘पच्छीनु’ के दो अर्थ-पक्षी और पक्ष वाले होने से श्लेष है।
⦁ गुण–प्रसाद एवं ओजा
⦁ शब्दशक्ति-अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना।