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एक युवा जंगल मुझे,
अपनी हरी उँगलियों से बुलाता है।
मेरी शिराओं में हरा रक्त बहने लगा है।
आँखों में हरी परछाइयाँ फिसलती हैं ।
कन्धों पर एक हरा आकाश ठहरा है।
होठ मेरे एक हरे गान में काँपते हैं—
मैं नहीं हूँ और कुछ
बस एक हरा पेड़ हूँ
—हरी पत्तियों की एक दीप्त रचना!

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[ युवा = जवान। शिराओं = नसों। दीप्त = प्रज्वलित, प्रभासित।]

सन्दर्भ-प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘काव्य-खण्ड में संकलित ‘युवा जंगल’ शीर्षक कविता से उद्धृत हैं। इन पंक्तियों के रचयिता श्री अशोक वाजपेयी जी हैं।

प्रसंग-प्रस्तुत पंक्तियों में कवि हरियाली और वृक्षों के महत्त्व का वर्णन कर रही है।

व्याख्या-कवि कहता है कि वृक्षों के निरन्तर कटाव को देखकर उसका हृदयं अत्यधिक दुःखी होता है, क्योंकि वह चतुर्दिक हरियाली ही निहारना चाहता है। हरियाली और वृक्षों को उसके जीवन में अत्यधिक महत्त्व है। एक दिन एक युवा अर्थात् नवीन जंगल की ओर उसकी दृष्टि जाती है तो वह उसे देखकर अत्यधिक प्रसन्न हो जाता है। वह युवा जंगल से स्वयं को आत्मसात-सा कर लेता है। जब युवा जंगल अपनत्व की भावना  से छोटी-छोटी शाखाओं रूपी हरी-हरी अँगुलियों से उसे बुलाता है तो धीरे-धीरे उसकी रगों में भी लाल रक्त के स्थान पर हरा रक्त प्रवाहित होता प्रतीत होता है। आशय यह है कि कवि उस समय स्वयं को एक पौधे के रूप में स्वीकार कर रहा था। कवि की आँखों के सामने जो परछाइयाँ आतीजाती दीखती हैं, वह भी उसे हरी ही दिखाई पड़ती हैं। धीरे-धीरे उसे ऐसा प्रतीत होने लगता है कि उसने अपने कन्धों पर हरे रंग का एक आकाश ही उठा रखा है। उसके होंठ हरियाली को निहारकर बरबस हरियाली के गान गाने के लिए बुदबुदाने लगते हैं और अकस्मात् उसके मुख से निकल पड़ता है कि वह एक हरे पेड़ के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। वह हरी पत्तियों से युक्त ईश्वर की एक प्रभासित रचना है।

काव्यगत सौन्दर्य-
⦁    स्वयं को वृक्षों के रूप में कल्पित करना अभूतपूर्व है।
⦁    भाषा-बोलचाल की खड़ी बोली।
⦁    शैली–प्रतीकात्मक़।
⦁    रस-शान्त।
⦁    छन्द-अतुकान्त और मुक्त।
⦁    अलंकार-मानवीकरण।
⦁    शब्द-शक्ति-अभिधा और लक्षणा।
⦁     गुण-माधुर्य।

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