दुर्योधन ने समस्त पाण्डवों का विनाश करने के लिए लाक्षागृह में आग लगवा दी। उसे पूर्ण विश्वास हो गया कि पाण्डव जलकर भस्म हो गये, परन्तु पाण्डवों ने उस स्थान से जीवित निकलकर दुर्योधन की चाल को विफल कर दिया। वे वेश बदलकर घूमते हुए द्रौपदी के स्वयंवर-मण्डप में पहुँचे और अर्जुन ने आसानी से मत्स्य-वेध करके स्वयंवर की शर्त पूर्ण की। राजाओं ने ब्राह्मण वेशधारी अर्जुन पर आक्रमण कर दिया, किन्तु अर्जुन और भीम ने अपने पराक्रम से उन्हें परास्त कर दिया। बलराम और श्रीकृष्ण भी उस स्वयंवर में उपस्थित थे। उन्होंने छिपे हुए वेश में भी पाण्डवों को पहचान लिया और रात में उनके निवास-स्थल पर उनसे मिलने हेतु गये। राजा द्रुपद को जब अपने पुत्र से पाण्डवों की वास्तविकतो ज्ञात हुई तो द्रुपद ने उन्हें राजभवन में आमन्त्रित किया और कुन्ती की इच्छा और व्यास जी के अनुमोदन पर द्रौपदी का विवाह पाँचों भाइयों से कर दिया गया।
इधर दुर्योधन पाण्डवों को जीवित देखकर ईष्र्या की अग्नि में जलने लगा। शकुनि उसे और भी उकसाने लगा। वह कर्ण को लेकर धृतराष्ट्र के पास पहुँचा और पाण्डवों के विनाश की अपनी इच्छा पर चर्चा की। धृतराष्ट्र ने उसे अपने भाई पाण्डवों के साथ प्रेमपूर्वक रहने की सलाह दी, लेकिन वह नहीं माना। कर्ण ने उसे पाण्डवों को युद्ध करके जीत लेने हेतु प्रेरित किया। लेकिन उसने कर्ण की सलाह भी नहीं मानी। अन्ततः धृतराष्ट्र चिन्तित होकर भीष्म, द्रोण और विदुर से परामर्श करके सत्य-न्याय की रक्षा के लिए पाण्डवों को आधा राज्य देने हेतु सहमत हो गये। विदुर कुन्ती, द्रौपदी सहित पाण्डवों को साथ लेकर हस्तिनापुर आये। जनता ने उनका भव्य स्वागत किया। धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर का राज्याभिषेक कर उनसे खाण्डव वन को पुनः बसाने के लिए कहा। श्रीकृष्ण ने धृतराष्ट्र से पाण्डवों को आशीर्वाद देने के लिए कहा। धृतराष्ट्र ने खेद प्रकट करते हुए प्रसन्न मन से उन्हें विदा कर दिया। दुर्योधन, कर्ण, दुःशासन और शकुनि मिलकर सोचने लगे कि पाण्डवों से सदा-सदा के लिए कैसे मुक्ति मिले।