इस मिट्टी का निर्माण ज्वालामुखी क्रिया द्वारा निर्मित लावा की शैलों के विखण्डन के फलस्वरूप हुआ है। इस मिट्टी का रंग काला होता है, जिस कारण इसे ‘काली मिट्टी’ अथवा ‘रेगुर मिट्टी’ भी कहा जाता है। इस मिट्टी में नमी धारण करने की क्षमता अधिक होती है। इसमें लोहांश, मैग्नीशियम, चूना, ऐलुमिनियम तथा जीवांशों की मात्रा अधिक पायी जाती है। इस मिट्टी का विस्तार लगभग 5 लाख वर्ग किमी क्षेत्रफल पर महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, मालवा तथा दक्षिणी मध्य प्रदेश के पठारी भागों में है। इसके अतिरिक्त दक्षिण में गोदावरी तथा कृष्णा नदियों की घाटियों में भी यह मिट्टी पायी जाती है। इस मिट्टी में कपास का भारी मात्रा में उत्पादन होने के कारण इसे ‘कपास की काली मिट्टी’ के नाम से भी पुकारा जाता है।