(सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ )
(स्मरणीय तथ्य )
जन्म – सन् 1897 ई०, मेदनीपुर (बंगाल)।
मृत्यु – सन् 1961 ई०।
पिता – पं० रामसहाय त्रिपाठी।
रचना – ‘राम की शक्ति-पूजा’, ‘तुलसीदास’, ‘अपरा’, ‘अनामिका’, ‘अणिमा’, ‘गीतिका’, ‘अर्चना’, ‘परिमल’, ‘अप्सरा’, ‘अलका’।
काव्यगत विशेषताएँ
वर्य-विषय – छायावाद, रहस्यवाद, प्रगतिवाद, प्रकृति के प्रति तादात्म्य का भाव।
भाषा – खड़ीबोली जिसमें संस्कृत शब्दों की बहुलता है। उर्दू व अंग्रेजी के शब्दों तथा मुहावरों का प्रयोग।
शैली – 1. दुरूह शैली, 2. सरल शैली।। छन्द-तुकान्त, अतुकान्त, रबर छन्द।। अलंकार-उपमा, रूपक, अतिशयोक्ति, मानवीकरण, विशेषण-विपर्यय आदि।
जीवन-परिचय – हिन्दी के प्रमुख छायावादी कवि पं० सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म महिषा-दल, स्टेट मेदनीपुर (बंगाल) में सन् 1897 ई० की बसन्त पंचमी को हुआ था। वैसे ये उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के गढ़ कोला गाँव के निवासी थे। इनके पिता पं० रामसहाय त्रिपाठी थे। ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनकी शिक्षा-दीक्षा बंगाल में हुई थी। 13 वर्ष की अल्पायु में इनका विवाह हो गया था। इनकी पत्नी बड़ी विदुषी और संगीतज्ञ थीं। उन्हीं के संसर्ग में रहकर इनकी रुचि हिन्दी साहित्य और संगीत की ओर हुई । निराला जी ने हिन्दी, बंगला और संस्कृत का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया था। 22 वर्ष की अवस्था में ही पत्नी का देहान्त हो जाने पर अत्यन्त ही खिन्न होकर इन्होंने महिषादल स्टेट की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और स्वच्छन्द रूप से काव्य-साधना में लग गये। इन्होंने ‘समन्वय’ और ‘मतवाला’ नामक पत्रों का सम्पादन किया। इनका सम्पूर्ण जीवन संघर्षों में ही बीता और जीवन के अन्तिम दिनों तक ये आर्थिक संकट में घिरे रहे। सन् 1961 ई० में इनका देहान्त हो गया।
रचनाएँ – निराला जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। कविता के अतिरिक्त इन्होंने उपन्यास, कहानी, निबन्ध, आलोचना और संस्मरण आदि विभिन्न विधाओं में भी अपनी लेखनी चलायी। परिमल, गीतिका, अनामिका, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, अणिमा, अपरा, बेला, नये पत्ते, आराधना, अर्चना आदि इनकी प्रमुख काव्य-कृतियाँ हैं। इनकी अत्यन्त प्रसिद्ध काव्य-रचना ‘जुही की कली’ है। लिली, चतुरी चमार, सुकुल की बीबी (कहानी संग्रह) एवं अप्सरा, अलका, प्रभावती इनके महत्त्वपूर्ण उपन्यास हैं। काव्यगत विशेषताएँ
(क) भाव-पक्ष-
- हिन्दी साहित्य में निराला मुक्त वृत्त परम्परा के प्रवर्तक माने जाते हैं।
- इनके काव्य में भाषा, भाव और छन्द तीनों समन्वित हैं।
- ये स्वामी विवेकानन्द और स्वामी रामकृष्ण परमहंस की दार्शनिक विचारधारा से बहुत प्रभावित थे।
- निराला के काव्य में बुद्धिवाद और हृदय का सुन्दर समन्वय है।
- छायावाद, रहस्यवाद और प्रगतिवाद तीनों क्षेत्रों में निराला का अपना विशिष्ट महत्त्वपूर्ण स्थान है।
- इनकी रचनाओं में राष्ट्रीय प्रेरणा का स्वर भी मुखर हुआ है।
- छायावादी कवि होने के कारण निराला का प्रकृति से अटूट प्रेम है। इन्होंने प्रकृति-चित्रण में प्रसाद जी की भाँति ही मानवीय भावों का आरोप करते। हुए एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया।
(ख) कला-पक्ष-
(1) भाषा-शैली-निराला जी की भाषा संस्कृतगर्भित खड़ीबोली है। यत्र-तत्र बंगला भाषा के शब्दों का भी प्रयोग मिल जाता है। इनकी रचनाओं में उर्दू और फारसी के शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। इनके काव्य में जहाँ हृदयगत भावों की प्रधानता है वहाँ भाषा सरल, मुहावरेदार और प्रवाहपूर्ण है। निराला के काव्य में प्राय: तीन प्रकार की शैलियों के दर्शन होते हैं
सरल और सुबोध शैली – (प्रगतिवादी रचनाओं में)
क्लिष्ट और दुरूह शैली – (रहस्यवादी एवं छायावादी रचनाओं में)
हास्य-व्यंग्यपूर्ण शैली – (हास्य-व्यंग्यपूर्ण रचनाओं में)
(2) रस-छन्द-अलंकारे-निराला के काव्य में श्रृंगार, वीर, रौद्र और हास्य रस का सुन्दर और स्वाभाविक ढंग से परिपाक हुआ है। निराला जी परम्परागत काव्य छन्दों से सर्वथा भिन्न छन्दों के प्रवर्तक माने जाते हैं। इनके मुक्तछन्द दो प्रकार के हैं। (1) तुकान्त (2) अतुकान्त। दोनों प्रकार के छन्दों में लय और ध्वनि का विशेष ध्यान रखा गया है।
अलंकारों के प्रति निराला जी की विशेष रुचि दिखलाई नहीं पड़ती। इन्होंने प्राचीन और नवीन दोनों प्रकार के उपमान की प्रयोग किया है। मानवीकरण और विशेषण जैसे अंग्रेजी के अलंकारों का भी इनके काव्य में प्रयोग मिलता है।
साहित्य में स्थान-निराला जी हिन्दी साहित्य के बहुप्रतिभा सम्पन्न कलाकार एवं साहित्यकार हैं। इन्होंने अपने परम्परागत क्रान्तिकारी स्वच्छन्द मुक्त काव्य-योजना का निर्माण किया। समय के परिवर्तन के साथ-साथ इनके काव्य में भी छायावाद, रहस्यवाद और प्रगतिवाद के दर्शन हुए हैं। सब कुछ मिलाकर निराला भारतीय संस्कृति के युगद्रष्टा कवि हैं। छायावादी चार कवियों (प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी वर्मा) में इनका प्रमुख स्थान है।