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एक देशप्रेमी की आत्मकथा अथवा एक देशभक्त की आत्मकथा

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एक देशप्रेमी की आत्मकथा
अथवा
एक देशभक्त की आत्मकथा

[बचपन – स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेना -जेलयात्रा – स्वतंत्रता-प्राप्ति पर हर्ष – पुरस्कार और पेंशन -अंतिम इच्छा]

जी हाँ, मैं एक देशभक्त हूँ, मैंने देश से प्रेम किया है। देशप्रेम के मार्ग के काँटों को भी फूल मानकर चमा है। आज अस्सी वर्ष की जर्जर आयु में भी देश ही मेरा देवता है। दरअसल देशप्रेम मुझे विरासत में मिला है। मेरे परदादा स्वतंत्रता की देवी रानी लक्ष्मीबाई की सेना में रहकर शहीद हुए थे। मेरे पिता लोकमान्य तिलक के कट्टर अनुयायी थे।

बचपन से ही मुझे उनके विचारों और संस्कारों ने प्रभावित किया था। मेरी पाठ्यपुस्तक में एक कविता थी, जिसकी निम्नलिखित पंक्तियाँ हमेशा मेरे ओठों पर रहती थीं “जननी का मान बढ़ाए जो, होता सपूत वह सच्चा है; जिसको स्वदेश से प्यार नहीं, उस नर से तो पशु अच्छा है!” इन्ही पंक्तियों को गुनगुनाते जब मैं हाईस्कूल से कॉलेज में पहुंचा तो देश की पराधीनता मुझे काटे की तरह खटकने लगी।

तिलक, गोखले, रानड़े आदि नेता जनता को स्वतंत्रता की प्रेरणा दे रहे थे। देश के लोग गुलामी की बेडियाँ तोड़ने के लिए बेचैन थे। गांधीजी के नेतृत्व ने स्वतंत्रता आंदोलन में नई जान फूंक दी थी। उनके सत्याग्रह के मंत्र से मुग्ध होकर मैं भी अपने कई साथियों के साथ स्वतंत्रता आंदोलन में कद पड़ा। सविनय अवज्ञा आंदोलन नमक सत्यागह और ‘भारत छोडो’ आंदोलन में मैंने दिल खोलकर भाग लिया। उनकी यादें आज भी मेरे हृदय को पुलकित कर देती हैं।

स्वतंत्रता के उस संघर्ष में जेल की यात्रा ही हम लोगों की तीर्थयात्रा बन गई थी। मैंने भी कई बार कारावास का स्वाद चखा। अंग्रेजों की जेले मानवीय यातनाओं की कूर क्रीड़ास्थली थीं ! मुझे और मेरे साथियों को घंटों तक बर्फ पर सुलाया जाता था। रात-रातभर सोने नहीं दिया जाता था। रहस्यों को उगलवाने के लिए हंटरों और चाबूकों से हमारी धुलाई की जाती थी। जो खाना हमें दिया जाता था, उसमें अनाज कम, कंकड़ ज्यादा होते थे। फिर भी सन् 1942 में जेलें सिनेमाघरों की तरह ‘हाउसफूल’ हो गई थीं!

हम लोगों के इसी त्याग-तप का यह परिणाम था कि 15 अगस्त, 1947 को देश स्वतंत्र हुआ। उस दिन सचमुच मैं खुशी से झूम उठा था। उस दिन को मैंने उसी तरह मनाया था जैसे लोग होली-दीवाली मनाते हैं। उस दिन के आनंद-उल्लासभरे दृश्य आज भी मेरी आँखों में बसे हुए हैं।

मैंने कभी किसी पद की कामना नहीं की। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् मैं आदिवासियों के उद्धार में लग गया। सन् 1973 में दिल्ली बुलाकर मुझे स्वातंत्र्य-सैनिक का पुरस्कार दिया गया। तबसे मुझे सरकार की ओर से पेंशन भी मिलनी शुरू हुई।

अब तो मैं तन-मन से पूरी तरह थक गया हूँ। एक ओर स्वतंत्र भारत पर हृदय गर्व और स्वाभिमान अनुभव करता है, तो दूसरी ओर देश में फैली गरीबी, अशिक्षा, शोषण, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, आतंकवाद आदि बुराइयों के कारण दिल टूक टूक हो जाता है। अब तो बस एक ही इच्छा है कि हमारा ‘स्वराज’ किसी तरह ‘सुराज’ में बदले और मरने के पहले मैं उन सपनों को सच में बदलते हुए देख लूं जो हमारे महान शहीदों ने देखे थे।

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