माघ की दाँत किटकिटानेवाली भोर में लेखक पोखरे पर गए । बालगोबिन भगत का संगीत उन्हें वहाँ खींच कर ले गया। वहां उन्होंने देखा कि आसमान में अभी तारों के दीपक बुझे नहीं थे। पूरब में लालिमा छा गई थी। उस लालिमा को शुक्रतारा और गहरा रहा था। खेत, बगीचा, घर सब पर कुहासा छाया हुआ था।
सारा वातावरण अजीब रहस्य से आवृत्त मालूम पड़ता था। उस रहस्यमय वातावरण में एक कुश की चटाई पर पूरब मुंह काली कमली ओढ़े बालगोबिन भगत अपनी खजड़ी लिए बैठे थे। उनके मुंह से शब्दों का ताता लगा था। उनकी अगुलिया खजड़ी पर लगातार चल रही थी। गाते-गाते वे इतने मस्त हो जाते, उत्तेजित हो उठते । मालूम होता अभी खड़े हो जाएगे । कमली बार बार नीचे सरक जाती थी। जाड़े की ठंड में लेखक कांप रहे थे और उस तारों की छाँव में बालगोबिन के मस्तक पर श्रमबिंदु चमक उठते थे।