सूखी डाली’ एकांकी के रचयिता श्री उपेंद्रनाथ अश्क हैं। यह उनका एक प्रतीकात्मक एकांकी है जिसमें संयुक्त परिवार प्रणाली का समर्थन किया गया है। मूलराज अपने सारे परिवार को एक इकाई बनाये हुए हैं। वे एक महान् वट के समान हैं । वे उस वट की तरह हैं जिसकी लंबी-लंबी शाखाएं सारे आंगन को छाया प्रदान करती हैं। दादा मूलराज 72 वर्ष के हैं। उनकी सफेद दाढ़ी वट की लंबी-लंबी शाखाओं की भांति उनकी नाभि को छूती हुई मानो धरती को छूने का प्रण किए हुए हैं। उनका बड़ा लड़का सन् 1914 के महायुद्ध में सरकार की ओर से लड़ते-लड़ते काम आया था। उसके बलिदान के बदले में सरकार ने दादा को एक मुरब्बा ज़मीन प्रदान की थी। दादा ने अपनी मेहनत और अपने साहस के बल पर एक के दस मुरब्बे बनाये।
उनके दो बेटे तथा पोते सारे काम-काज की देखभाल करते हैं। सबसे छोटा पोता नायब तहसीलदार हो गया है। उसका विवाह लाहौर की एक सुशिक्षित युवती से हुआ है। घर में शिक्षित युवती के आगमन में एक संक-सा पैदा हो गया है। दादा की तीनों बहुएं घर में बड़ी भाभी, मंझली भाभी तथा छोटी भाभी के नाम से पुकारी जाती हैं। वे तीनों सीधी-सादी महिलाएं हैं। इन सब में उनकी (दादा की) पोती इंदु प्राइमरी तक पढ़ी है। वह स्वभाव से नटखट है। दादा भी उससे बड़ा प्यार करते हैं। पढ़ी-लिखी बहु बेला के आने से इस परिवार की शांति भंग होने लगती है।
अंत में ऐसी स्थिति आती है कि परेश तथा उसकी पत्नी बेला घर से अलग होने का निर्णय कर लेते हैं। दादा यह सहन नहीं कर सकते। वे नहीं चाहते कि घर के संयुक्त परिवार का कोई सदस्य-अलग हो। वे बड़ी युक्ति से इस टूटते हुए परिवार को बचा लेते हैं। उनका कथन है-“बेटा यह कुटुंब एक महान् वृक्ष है। हम सब इसकी डालियां हैं। डालियों ही से पेड़, पेड़ है…..और डालियां छोटी हों चाहे बड़ी सब उसकी छाया को बढ़ाती हैं। मैं नहीं चाहता कोई डाली इससे टूटकर पृथक् हो जाए।”