19वीं शताब्दी के अंत में राष्ट्रीयता की भावना जागृत हुई। राष्ट्र की सांकेतिक पहचान के लिए राष्ट्रीय पोशाक पर विचार किया जाने लगा। भारत के विभिन्न भागों में उच्च वर्गों में स्त्री-पुरुषों ने स्वयं ही वस्त्रों के नए-नए प्रयोग करने आरंभ कर दिए। 1870 के दशक में बंगाल के टैगोर परिवार ने भारत के स्त्री तथा पुरुषों की राष्ट्रीय पोशाक के डिजाइन के प्रयोग आरंभ किए। रविंद्रनाथ टैगोर ने सुझाव दिया कि भारतीय तथा यूरोपीय वस्त्रों को मिलाने के स्थान पर हिंदू तथा मुस्लिम वस्त्रों के डिजाइनों को आपस में मिलाया जाए। इस प्रकार बटनों वाले एक लंबे कोट (अचकन) को भारतीय पुरुषों के लिए आदर्श पोशाक माना गया।
भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की परंपराओं को ध्यान में रखकर भी एक वेशभूषा तैयार करने का प्रयास किया गया। 1870 के दशक के अंत में सतेंद्रनाथ टैगोर की पत्नी ज्ञानदानंदिनी टैगोर ने राष्ट्रीय पोशाक तैयार करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने साड़ी पहनने के लिए पारसी स्टाइल को अपनाया। इसमें साड़ी को बाएं कंधे पर पिन किया जाता था। साड़ी के साथ मिलते-जुलते ब्लाउज तथा जूते पहने जाते थे। जल्दी ही इसे ब्रह्म समाज की स्त्रियों ने अपना लिया। अतः इसे ब्रालिका साड़ी के नाम से जाना जाने लगा। शीघ्र ही यह शैली महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के ब्रह्म-समाजियों तथा गैरब्रह्मसमाजियों में प्रचलित हो गई।