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निम्नलिखित गद्यांश की सप्रसंग व्याख्या कीजिए –

इन बातों को आज पचास से ज्यादा बरस होने को आए पर ज्यों की त्यों मन पर दर्ज हैं। कभी-कभी कैसे-कैसे संदर्भो में ये बातें मन को कचोट जाती हैं, हम आज देश के लिए करते क्या है? माँगें हर क्षेत्र में बड़ी-बड़ी हैं पर त्याग का कहीं नाम-निशान नहीं है। अपना स्वार्थ आज एकमात्र लक्ष्य रह गया है। हम चटखारे लेकर इसके या उसके भ्रष्टाचार की बातें करते हैं पर क्या कभी हमने जाँचा है कि अपने स्तर पर अपने दायरे में हम उसी भ्रष्टाचार के अंग तो नहीं बन रहे है? काले मेघा दल के दल उमड़ते हैं, पानी झमाझम बरसता है, पर गगरी फूटी की फूटी रह जाती है, बैल पियासे के पियासे रह जाते हैं? आखिर कब बदलेगी यह स्थिति।

अथवा

किन्तु रात में फिर पहलवान की ढोलक की आवाज, प्रतिदिन की भाँति सुनाई पड़ी। लोगों की हिम्मत दुगुनी बढ़ गई। संतप्त पिता माताओं ने कहा-“दोनों पहलवान बेटे मर गए, पर पहलवान की हिम्मत तो देखो, डेढ़ हाथ का कलेजा है।”

चार-पाँच दिनों के बाद। एक रात को ढोलक की आवाज नहीं सुनाई पड़ी। ढोलक नहीं बोली। पहलवान के कुछ दिलेर, किन्तु रुग्ण शिष्यों ने प्रातः काल जाकर देखा-पहलवान की लाश ‘चित’ पड़ी है। आँसू पोंछते हुए एक ने कहा “गुरु जी कहा करते थे कि जब मैं मर जाऊँ तो चिता पर मुझे चित नहीं, पेट के बल सुलाना। मैं जिंदगी में कभी ‘चित’ नहीं हुआ और चिता सुलगाने के समय ढोलक बजा देना।” वह आगे बोल नहीं सका।

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सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग-2’ में संकलित पाठ ‘काले मेघा पानी दे’ से लिया गया है। इसके लेखक धर्मवीर भारती हैं। प्रसंग-लेखक देशवासियों को देश के प्रति उनके कर्तव्यों का स्मरण करा रहा है।

व्याख्या- आज देश और सरकार से आशा की जाती है कि वे देश के नागरिकों की सभी सुख-सुविधाओं का प्रबंध करें। पर क्या हम देशवासी कभी यह सोचते हैं कि वे देश के लिए क्या कर रहे हैं। हर क्षेत्र का नागरिक देश से बड़ी-बड़ी उम्मीद लगाए बैठा है, पर उसमें देश के लिए त्याग की भावना नाम मात्र को भी नहीं मिलती। सभी लोग इस चेष्टा में लगे हैं कि कैसे उनके स्वार्थों की पूर्ति हो।

लोग स्वयं को बड़े ईमानदार समझते हुए दूसरों के दुर्गुणों का बखान किया करते हैं। इस काम में उन्हें बड़ा रस आता है। किस-किस ने क्या-क्या भ्रष्टाचार और घोटाले किये हैं यह तो हमें पता है पर हम अपने भीतर झाँक कर नहीं देखते कि कहीं वे स्वयं भी तो इस भ्रष्टाचार में सहायक नहीं हैं। हम सभी जाने-अनजाने इस भ्रष्ट आचरण को बढ़ावा दे रहे हैं।

यही कारण है कि देश पूरी गति से आगे नहीं बढ़ पा रहा है। अनेक योजनाएँ बनती हैं। लाखों-करोड़ों की धनराशि व्यय होती है लेकिन जनता के हाथ कुछ नहीं पड़ता। उसकी झोली तो खाली की खाली ही रह जाती है। मेघ खूब बरसते हैं पर जनता के दुर्भाग्य की फूटी गगरी रीती की रीती रह जाती है। इतनी वर्षा में भी बैल बेचारे प्यासे रह जाते हैं। क्या देश की यह दुर्दशा कभी दूर होगी? लोग देश के प्रति अपने कर्तव्यों का दृढ़ता से पालन करेंगे? कोई नहीं जानता।

अथवा

सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश पाठ्य-पुस्तक ‘आरोह भाग-2’ में संकलित पाठ ‘पहलवान की ढोलक’ से लिया गया है। इसके लेखक फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ हैं। प्रसंग-प्रस्तुत अंश में लेखक लुट्टन पहलवान के दोनों पुत्रों की मृत्यु और पहलवान के धैर्य का परिचय करा रहा हैं।

व्याख्या- पहलवान के दोनों बेटे बीमार हो गए, चिकित्सा के अभाव में दोनों की मृत्यु हो गई। पहलवान दोनों बेटों के शव कंधे पर लाद कर नदी में बहा आया। लोगों को पता चला तो बड़ा दःख हआ। लोगों को लगा कि अब पहलवान टूट जाएगा। ढोलक बजना बंद हो जाएगा। किन्तु रात में पहलवान की ढोलक की आवाज सदा की तरह बजने लगी। यह देखकर गाँव के निराश-हताश लोगों की हिम्मत दूनी हो गई। गाँव के दुखी माता-पिता कहने लगे कि देखो लुट्टन के दोनों पहलवान बेटों की मृत्यु हो गई लेकिन उसका साहस तो देखो जरा भी मन व्याकुल नहीं हुआ। ऐसा साहस और धैर्य कहाँ मिलेगा?

चार-पाँच दिन ही बीते थे कि एक रात को ढोलक की आवाज सुनाई नहीं पड़ी। पहलवान के कुछ साहसी परन्तु रोगी शिष्यों ने सबेरे पहलवान के घर जाकर देखा कि पहलवान का शव चित पड़ा हुआ था। एक शिष्य आँसू पोंछते हुए बोला कि गुरुजी (पहलवान) कहा करते थे कि जब वह मर जाएँ तो चिता पर उसके शव को ‘चित’ नहीं पेट के बल सुलाया जाए। वह जिंदगी में कभी किसी पहलवान के हाथों ‘चित’ नहीं हुए। उनकी चिता को आग लगाते समय ढोलक बजा दी जाए।

इतना कहते-कहते शिष्य का गला भर आया और वह आगे कुछ नहीं बोल पाया।

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