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नियन्त्रण की प्रक्रिया में शामिल विभिन्न चरणों की व्याख्या करें।

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नियन्त्रण प्रक्रिया में शामिल विभिन्न चरण नियन्त्रण की प्रक्रिया में निम्नलिखित कदम उठाये जाते हैं-

1. निष्पादन मानकों का निर्धारण करना- नियन्त्रण प्रक्रिया में सबसे पहले कार्य-निष्पादन मानकों का निर्धारण करना होता है। मानक एक मानदण्ड है जिसके तहत वास्तविक निष्पादन की माप की जाती है। मानकों का निर्धारण परिमाणात्मक तथा गुणात्मक दोनों रूप में हो सकता है। मानकों का निर्धारण करते समय प्रबन्धक को चाहिए कि वह मानकों को संक्षिप्त परिमाणात्मक शब्दों में निर्धारित करे ताकि उनकी तुलना वास्तविक निष्पादन से आसानी से हो सके। जब गुणात्मक मानकों का निर्धारण किया जाता है तो उनकी व्याख्या इस प्रकार की जाए जिससे उनकी गणना आसानी से की जा सके। यह ध्यान देने योग्य बात है कि मानक जो निर्धारित किये जाते हैं वे इतने लचीले होने चाहिए कि उनमें आवश्यकतानुसार सुधार किया जा सके।

2. वास्तविक निष्पादन का मापन करना- नियन्त्रण प्रक्रिया के इस चरण में निष्पादन मानकों का निर्धारण कर लेने के पश्चात् वास्तविक निष्पादन का मापन होता है। निष्पादन की यह माप उद्देश्यपूर्ण तथा विश्वसनीय विधि से होनी चाहिए। निष्पादन की माप व्यक्तिगत देख-रेख, नमूना जाँच, निष्पादन रिपोर्ट आदि की सहायता से की जा सकती है। जहाँ तक सम्भव हो निष्पादन की माप उसी इकाई में हो जिसमें मानकों का निर्धारण हुआ है। निष्पादन का माप कार्य चलते रहने की स्थिति में तथा कार्य पूरा हो जाने पर किया जाना चाहिए। 

3. वास्तविक निष्पादन की मानकों से तुलना- नियन्त्रण प्रक्रिया के इस चरण में वास्तविक निष्पादन की तुलना निर्धारित मानकों से की जाती है। ऐसी तुलना में इच्छित तथा वास्तविक परिणामों में अन्तर हो सकता है। मानकों का निर्धारण यदि परिमाणात्मक शब्दों में किया जाता है तो तुलना करना आसान होता है। उदाहरणार्थ, एक श्रमिक की एक सप्ताह में उत्पादित इकाइयों की माप आसानी से की जा सकेगी यदि साप्ताहिक उत्पादन मानक तैयार किये हुए होंगे।

4. विचलन विश्लेषण- वास्तविक निष्पादन की मानकों से तुलना किये जाने पर कुछ विचलनों का पाया जाना स्वाभाविक है। अत: यह आवश्यक है कि यह निश्चित किया जाये कि विचलनों का क्षेत्र अनुमानत: क्या होगा? इसके साथ ही यह भी ध्यानपूर्वक देखा जाये कि विचलन के मुख्य क्षेत्र क्या हैं जिन पर कार्यवाही तुरन्त ही की जाती है अपेक्षाकृत उन क्षेत्रों के जो अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। इसके लिए यह उचित होगा कि विचलनों के लिए अधिकतम व न्यूनतम सीमाओं का निर्धारण किया जाये। इस सन्दर्भ में एक प्रबन्धक को जटिल बिन्दुओं का नियन्त्रण अपवाद द्वारा प्रबन्ध को उपयोग में लाना चाहिए।

ऐसे विचलनों की जिन पर प्रबन्ध को विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है कि पहचान कर लेने के उपरान्त उनके कारणों का विश्लेषण करने की आवश्यकता होती है। विचलनों के होने के कई कारण हो सकते हैं जैसे अवास्तविक मानक, त्रुटिपूर्ण प्रक्रिया, अनुपयुक्त संसाधन, ढाँचागत कमियाँ, संगठनात्मक प्रतिबन्ध तथा ऐसे वातावरणीय तत्त्व जो संगठन के नियन्त्रण के बाहर होते हैं। अतः यह जरूरी होता है कि कारणों का सहीसही पता लगाया जाये। इसके अभाव में सुधारात्मक कार्यवाही करने में कठिनाई आयेगी। विचलनों तथा उनके कारणों को उसके उपरान्त उचित कार्यवाही हेतु उपयुक्त स्तर पर प्रस्तुत किया जाता है।

5. सुधारात्मक कार्यवाही करना- नियन्त्रण प्रक्रिया के इस अन्तिम चरण में सुधारात्मक कार्यवाही की जाती है। यदि विचलन निर्धारित सीमा से अधिक होता है तो प्रबन्धकीय कार्यवाही की तुरन्त आवश्यकता होती है ताकि विचलनों को समाप्त किया जा सके तथा ङ्के मानकों को प्राप्त किया जा सके । सधारात्मक कार्यवाही में कर्मचारियों का प्रशिक्षण भी हो सकता है। उस अवस्था में जबकि उत्पाद का लक्ष्य नहीं प्राप्त हो पाता हो। इसी प्रकार यदि कोई उपक्रम अपने निर्धारित कार्यक्रम से पीछे चल रहा हो तो समाधान सम्बन्धी उपायों में अतिरिक्त कर्मचारियों की भर्ती की जा सकती है तथा अतिरिक्त संयन्त्रों की व्यवस्था भी की जा सकती है तथा कर्मचारियों को अतिरिक्त समय काम करने की इजाजत भी दी जा सकती है। यदि प्रबन्धकों के प्रयासों से विचलनों को ठीक रास्ते पर चलाया जा सकता हो तो मानकों का पुनः निरीक्षण करना चाहिए।

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