मौर्य साम्राज्य की प्रशासनिक व्यवस्थाओं की चर्चा हम निम्नलिखित बिन्दुओं के अनुसार कर सकते हैं
1. केन्द्रीय शासन: मौर्य प्रशासन में सम्राट सर्वोच्च तथा राजकीय सत्ता का प्रमुख केन्द्र होता था। सम्राट के पास असीमित शक्तियाँ होती थीं सम्राट नियमों का निर्माता, सर्वोच्च न्यायाधीश, सेनानायक एवं मुख्य कार्यकारिणी का अध्यक्ष होता था।
2. मंत्रिपरिषद: राजा ने राज्य के कार्यों में सहायता एवं परामर्श हेतु मंत्रिपरिषद की स्थापना की थी। मंत्रिपरिषद में चरित्रवान तथा बुद्धिमान व्यक्तियों की नियुक्ति की जाती थी परन्तु मंत्रिपरिषद का निर्णय राजा के लिए मानना अनिवार्य नहीं था।
3. अधिकारी: शीर्षस्थ राज्याधिकारी जो संख्या में 18 थे, तीर्थ कहलाते थे। वे केन्द्रीय विभागों का कार्यभार देखते थे जिनमें कोषाध्यक्ष, कर्मान्तिक, समाहर्ता, पुरोहित एवं सेनापति प्रमुख थे। इसके अतिरिक्त अर्थशास्त्र में 27 अध्यक्षों का उल्लेख मिलता है जो राज्य की आर्थिक गतिविधियों का नियमन करते थे। वे कृषि, व्यापार, वाणिज्य, बाट-माप, कताई-बुनाई, खानों एवं वनों आदि का नियमन एवं नियंत्रण करते थे।
4. प्रान्तीय प्रशासन: मौर्य साम्राज्य चार प्रान्तों में विभाजित था-उत्तरापथ, दक्षिणापथ, अवन्तिपथ और मध्ये प्रान्त। प्रत्येक प्रान्त का प्रशासक राजकुमार होता था जो मंत्रिपरिषद और अमात्यों के माध्यम से शासन चलाता था। धर्म महामात्र तथा अमात्य प्रान्तीय अधिकारी थे जो धम्म एवं अन्य कार्य देखते थे। प्रान्तों को विषयों में बाँटा गया जो विषयपति के अधीन होते थे।
5. नगर का प्रशासन: नगरे प्रबन्ध हेतु 5 – 5 सदस्यों की 6 समितियाँ होती थीं जो विभिन्न कार्यों, उद्योग, शिल्प, विदेशी मामलों, जनगणना, वाणिज्य, व्यापार, निर्मित वस्तुओं की देखभाल एवं बिक्रीकर आदि के नियमन विपणन एवं रखरखाव का कार्य करती थीं। ‘नागरक’ नगर प्रशासन का अध्यक्ष तथा गोप व स्थानिक उसके सहायतार्थ कर्मचारी थे।
6. जनपद एवं ग्रामीण प्रशासनिक व्यवस्था: ग्राम प्रशासन की व्यवस्था ग्राम पंचायतों द्वारा की जाती थी। ग्राम का मुखिया ग्रामिक अथवा ग्रामिणी कहलाता था। ग्राम पंचायतों में कार्य हेतु गोप की नियुक्ति की जाती थी। गोप गाँव के परिवारों की संख्या, घर के सदस्यों की संख्या, खेतों व बागों के स्वामित्व, फसलों, कर, सड़क, पानी आदि का लेखा-जोखा रखते थे। जनपद स्तर पर प्रदेष्ट, राजुक व युक्त नामक अधिकारी थे जो भूमि, न्याय व लेखों से सम्बन्धित दायित्व वहन करते थे।
7. न्याय एवं दण्ड विधान: धर्म, व्यवहार, चरित्र एवं राजशासन न्याय संहिता के स्रोत थे। राजा सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। राजुक, व्यावहारिक आदि न्यायिक अधिकारी थे। संग्रहण व द्रोणमुख स्थानीय एवं जनपद स्तर के न्यायालय थे। दण्ड व्यवस्था अत्यन्त कठोर थी।
8. सेना प्रणाली व गुप्तचर व्यवस्था: सैन्य विभाग को सबसे बड़ा अधिकारी सेनापति होता था। सेना की छः शाखाएँ र्थी जो क्रमशः पैदल, अश्व, हाथी, रथ एवं नौसेना में विभक्त थीं। प्रशासन तंत्र के साथ-साथ गुप्तचर्या को विस्तृत जाल भी बिछाया गया था जिसके लोग मंत्रियों से लेकर आम जनता की गतिविधियों पर नजर रखते थे।
9. राजस्व प्रशासन: समाहर्ता राजस्व विभाग का प्रमुख अधिकारी था। दुर्ग, राष्ट्र, ब्रज, सेतु, वन, खाने, आयात-निर्यात प्राप्ति राजस्व आदि के मुख्य स्रोत थे। सन्निधाता राजकीय कोष का मुख्य अधिकारी होता था। इस प्रकार मौर्यकालीन प्रशासन एक केन्द्रीयकृत व्यवस्था थी। चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने मुख्यमंत्री कौटिल्य की सहायता से एक आदर्श शासन प्रणाली की स्थापना की।