गुप्तकाल प्राचीन भारत के इतिहास का मध्य युग है। पहले का सम्पूर्ण इतिहास इसमें समाप्त होता है तथा भविष्य का समस्त इतिहास इससे निकलता है। यह वह काल है जब देश की प्रतिभा का प्रत्येक दिशा में विकास हुआ है। इसलिए इसे भारतीय इतिहास का स्वर्णकाल कहते हैं। फाह्यान ने गुप्तकाल में धार्मिक सहिष्णुता, सरल दण्ड व्यवस्था, घरों में तालों का अभाव तथा प्याज, लहसुन के सेवन न होने का उल्लेख किया है जो समाज में अपराधवृत्ति की न्यूनता, सम्पत्ति की सुरक्षा, अहिंसक तथा सात्विक प्रवृत्ति को दर्शाते हैं। मौर्यों के पश्चात् पहली बार राजनीतिक एकता एवं सुव्यवस्था इस काल में स्थापित हुई।
इस काल में अर्थव्यवस्था का मुद्रीकरण हुआ। उद्योग तथा व्यापार समुन्नत थे। इस युग की कला में आध्यात्मिकता, शालीनता तथा भारतीयता की स्पष्ट छाप दिखाई देती है। अजन्ता, बाघ के गुहा चित्र, देवगढ़ भितरी गाँव आदि के मन्दिर, विष्णु, बुद्ध, महावीर की मूर्तियाँ आदि इस युग की कला के चरमोत्कर्ष के द्योतक हैं जो सामाजिक समृद्धि एवं सौहार्द का प्रतीक हैं। साहित्य में कालिदास, हरिषेण, विष्णुशर्मा आदि ने उच्च कोटि की रचनाएँ कीं। आर्यभट्ट, वराहमिहिर, नागार्जुन आदि ने विज्ञान की विभिन्न शाखाओं का विकास किया तथा भारतीय संस्कृति का भी विदेशों में प्रचार-प्रसार भी इसी काल में हुआ।
गुप्तकाल कला, वास्तु, मूर्ति, शिल्प चित्रकला, साहित्य, वैज्ञानिक प्रवृत्तियों के अवतरण, पल्लवन और मुद्रा प्रसारण में समग्र रूप से प्रगति का युग था। राजनीतिक एकता, प्रतापी सम्राट, आर्थिक वैभव, धार्मिक सहिष्णुता, विदेशियों को हिन्दू धर्म में सम्मिलित करना, हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान, संस्कृत साहित्य की प्रगति, सभी ललित कलाओं की उन्नति, विदेशों में भारतीय संस्कृति का प्रचार करने के कारण प्राचीन भारतीय इतिहास में गुप्तकाल का स्थान श्रेष्ठ है। इन कार्यों के लिए नि:सन्देह गुप्तकाल प्राचीन भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग था।