कल्हण की राजतरंगिणी संस्कृत में उपलब्ध उन रचनाओं में पहली महत्वपूर्ण रचना है जिसमें ऐतिहासिक इतिवृत्त की विशेषताएँ पायी जाती हैं। इस ग्रन्थ की रचना 1147 ई. से 1149 ई. के मध्य की गयी। राजतरंगिणी का शाब्दिक अर्थ है- राजाओं की नदी जिसका भावार्थ है-राजाओं का इतिहास या समय प्रवाह। यह कवित्त के रूप में है। इसमें कश्मीर का इतिहास वर्णित है जो महाभारत काल से लेकर स्वयं अपने युग तक के कश्मीर के इतिहास का विवरण देता है। इस ग्रन्थ में आठ तरंग और संस्कृत में कुल 7826 श्लोक हैं।
इसकी तरंगों का विवरण निम्न प्रकार है।
1. पहले की तीन तरंगों में कश्मीर के प्राचीन इतिहास की जानकारी मिलती है जिसमें कश्मीर की पीढ़ी-दर-पीढ़ी से आ रही मौखिक परम्पराओं का वर्णन है।
2. चौथे से लेकर छठे तरंग में कार्कोट एवं उत्पन्न वंश के इतिहास का वर्णन है। केवल अंतिम दो अध्याय कल्हण की। व्यक्तिगत जानकारी एवं ग्रन्थावलोकन पर आधारित हैं।
3. अन्तिम सातवें एवं आठवें तरंग में लोहर वंश का इतिहास उल्लिखित है।
राजतरंगिणी एक निष्पक्ष और निर्भय ऐतिहासिक कृति है। कल्हण ने अपने इस ग्रंथ में पक्षपातरहित होकर राजाओं के गुण तथा दोषों का उल्लेख किया है। यह कृति तत्कालीन समाज का भी वर्णन करती है। कल्हण ने इस ग्रन्थ में उन स्रोतों का भी वर्णन किया जिनकी उन्होंने अपना इतिहास लिखने के लिए जाँच पड़ताल की। उन्होंने अपने से पहले के ग्यारह विद्वानों का उल्लेख किया है जिन्होंने राजाओं की कालक्रमानुसार सूची दी और साथ ही उन विद्वानों की विवेचन पद्धति की कमियों को भी बताया है।
उन्होंने अनुश्रुतियों, परम्पराओं और इस क्षेत्र पर लिखी गई प्रमुख रचनाओं; जैसे- नीलमत पुराण का उपयोग किया। उन्होंने मन्दिरों तथा अन्य भवनों में खुदे हुए अभिलेखों को जो युगान्तकारी उपयोग किया वह प्रगति को सूचक है। साथ ही उन्होंने पूर्ववर्ती राजाओं द्वारा किये गये भूमिदान तथा धर्मदाय के बारे में बहुत कुछ लिख है। उन्होंने अभिलेखों से जो सूचनाएँ एकत्र कीं, उनका भी उपयोग किया है। इतिहास के तर्कसंगत स्रोतों के रूप में अभिलेखों का यह उपयोग निश्चय ही एक महान योगदान था।