भारत पर आक्रमण करने वाली विदेशी जातियों में से एक जाति हूण थी। इतिहासकारों के अनुसार हूण मंगोलों की तरह ही मध्य एशिया की एक खानाबदोश व बर्बर जाति थी तथा इसने भारत की धन – सम्पदा को खूब लूटा। कुछ इतिहासकार इन्हें बंजारों व गुर्जरों की उपजाति की संज्ञा देते हैं तो कुछ इन्हें राजपूतों के पूर्वजों के रूप में भी स्वीकार करते हैं। हूणों की उत्पत्ति मूलत: का केशस से मानी जाती है। वहाँ से इन्होंने अपना साम्राज्य मध्य व दक्षिणी एशिया के अन्य देशों में फैलाना शुरू किया। लगभग 450 ई. में इन्होंने भारत पर आक्रमण किया। भारत में इनका प्रवेश पश्चिम से हुआ।
हूणों का भारतीय राजनीति में प्रवेश गुप्त सम्राट स्कन्दगुप्त के काल में हुआ जब इस जाति द्वारा स्कन्दगुप्त को सैकड़ों हमलों के द्वारा ललकारा गया। स्कन्दगुप्त ने हूणों को सफल नहीं होने दिया परन्तु कालान्तर में गुप्तकाल की शक्ति क्षीण होने के कारण सन्धिकाल में हूणों के राजा तोरमाण ने आर्यावर्त अर्थात् मालवा को विजित करने के बाद भारत में स्थायी निवास बना लिया। तोरमाण के बाद उसके पुत्र मिहिरकुल ने पंजाब पर आक्रमण कर उसे अपने अधीन कर लिया।
जैन ग्रन्थ कुवलयमाल के अनुसार तोरमाण चन्द्रभागा नदी के किनारे स्थित पवैय्या नगरी से भारत पर शासन करता था। हूणों के अत्याचार का मुकाबला 528 ई. में स्थानीय शासक यशोवर्मन तथा बालदित्य ने मिलकर किया। यशोवर्मन ने हूणों को परास्त किया किन्तु वे अपने मूल स्थान मध्य एशिया नहीं गए बल्कि हिन्दू धर्म व संस्कृति को आत्मसात करके इसके अभिन्न अंग बन गए तथा इसी में विलीन हो गए। हूणों ने मध्य एशिया से नरसंहारक क्रूर व बर्बर जाति के रूप में हमलावर की भाँति भारत पर चढ़ाई की परन्तु अन्त में वे भारतीय संस्कृति के रीति-रिवाजों को अपनाकर सदा के लिए भारतीय बन गए।