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महाराणा कुम्भा की राजनैतिक एवं सांस्कृतिक उपलब्धियों का मूल्यांकन कीजिए।

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महाराणा कुम्भा 1433 ई. में मेवाड़ की राजगद्दी पर बैठा। उसके पिता का नाम महाराणा के मोकल तथा माता का नाम सौभाग्य देवी था। शासक बनने के बाद उसने अपने यशस्वी पराक्रम द्वारा न केवल आन्तरिक और बाह्य कठिनाइयों का सफलतापूर्वक सामना किया अपितु अपनी युद्धकालीन और सांस्कृतिक उपलब्धियों द्वारा मेवाड़ के गौरव को पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया।

कुम्भा की प्रारम्भिक कठिनाइयाँ:

शासक बनने के समय कुम्भा के समय अनेक आन्तरिक और बाह्य समस्याएँ थीं। मेवाड़ के महाराणा क्षेत्र सिंह (1364 – 82 ई.) की उपपत्नी की सन्तान चाचा और मेरा उसके पिता मोकल की हत्या कर मेवाड़ पर अधिकार करने के लिए प्रयास करने लगे थे। इस कारण मेवाड़ी सरदार दो भागों में विभाजित हो चुके थे-एक गुट कुम्भा समर्थक तथा दूसरा गुट उसके विरोधियों चाची, मेरा व मंहपा पंवार का समर्थक।

इस अव्यवस्था का लाभ उठाकर अनेक राजपूत सामन्त अपने स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने के प्रयास करने लगे थे। कुम्भा द्वारा रणमल व राघवदेव के नेतृत्व में भेजी गई सेना ने शीघ्र ही विद्रोहियों का दमन कर दिया। चाचा और मेरा अपने अनेक समर्थकों के साथ मारे गए किन्तु चाचा के पुत्र एक्का व महपा पंवार भागकर मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी की शरण में पहुँचने में सफल हो गए।

महाराणा कुम्भा की राजनैतिक उपलब्धियाँ

1. मेवाड़ और मालवा का सम्बन्ध:

मेवाड़ और मालवा दोनों एक-दूसरे के पड़ोसी राज्य थे और यहाँ के शासक अपने-अपने राज्यों की सीमाओं का विस्तार करना चाहते थे। इस कारण दोनों राज्यों के बीच संघर्ष होना आवश्यक था किन्तु दोनों के बीच संघर्ष का तात्कालिक कारण मालवा के सुल्तान द्वारा कुम्भा के विद्रोही सरदारों को अपने यहाँ शरण देना था। मोकल के हत्यारे महपा पंवार ने मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी के पास शरण ले रखी थी।

कुम्भा ने सुल्तान को पत्र लिखकर महपा की माँग की जिसे सुल्तान द्वारा अस्वीकार कर दिया गया। इसलिए कुम्भा ने मालवा पर आक्रमण करने का फैसला किया। 1437 ई. में सारंगपुर नामक स्थान पर दोनों की सेनाओं के बीच घनघोर संघर्ष हुआ जिसमें पराजित होकर महमूद भाग गया। कुम्भा ने महमूद का पीछा करते हुए मालवा को घेर लिया और उसे कैद कर चित्तौड़ ले आया। छः माह तक सुल्तान को अपने यहाँ कैद रखने के कुम्भा ने उसे बिना शर्त रिहा कर दिया।

महमूद खिलजी ने अपनी पहली पराजय का बदला लेने के लिए 1443 ई. में कुम्भलगढ़ पर आक्रमण कर दिया। कुम्भा ने किले के दरवाजे के नीचे वाणमाता के मन्दिर के पास दीपसिंह के नेतृत्व में एक मजबूत सेना नियुक्त कर रखी थी। सात दिन तक चले भयंकर संघर्ष में दीपसिंह व उनके साथियों की मृत्यु के बाद ही मन्दिर पर शत्रु की सेना अधिकार कर पाई। इस मोर्चे को तोड़ने में महमूद की सेना को इतनी हानि उठानी पड़ी कि मन्दिर को नष्ट – भ्रष्ट कर उसकी टूटी हुई मूर्तियाँ कसाइयों को माँस तौलने के लिए दे दी गई।

नन्दी की मूर्ति का चूना पकाकर राजपूतों को पान में खिलाया गया। महमूद की सेना ने चित्तौड़ पर अधिकार करने का प्रयास भी किया किन्तु उसे सफलता नहीं मिली। 1446 ई. में महमूद ने एक बार फिर माण्डलगढ़ व चित्तौड़ पर अधिकार करने का प्रयास किया किन्तु सफलता उसे इस बार भी न मिल सकी। 1456 ई. में महमूद ने माण्डलगढ़ पर अधिकार करने का अन्तिम असफल प्रयास किया।

2. मेवाड़ – गुजरात सम्बन्ध:

कुम्भा के समय गुजरात की अव्यवस्था समाप्त हो चुकी थी और वहाँ के शासक अपने प्रभाव क्षेत्र के विस्तार के लिए लालायित थे। मालवा मेवाड़ के बीच चलने वाले संघर्ष तथा सिरोही व गुजरात की राजनीतिक स्थिति ने मेवाड़ – गुजरात के बीच संघर्ष को आवश्यक बना दिया। 1456 ई. में फिरोज खाँ की मृत्य के बाद उसका पुत्र शम्स खाँ नागौर का नया स्वामी बना किन्तु फिरोज के छोटे भाई मुजाहिद खाँ ने शम्स खाँ को पराजित कर नागौर पर अपना अधिकार कर लिया। शम्स खाँ ने महाराणा कुम्भा की सहायता से नागौरपर पुनः अधिकार कर लिया किन्तु शीघ्र ही उसने कुम्भा की शर्त के विपरीत नागौर के किले की मरम्मत करवानी प्रारम्भ कर दी। नाराज कुम्भा ने नागौर पर आक्रमण कर अपना अधिकार कर लिया।

शम्स खाँ ने गुजरात के सुल्तान कुतुबुद्दीन के साथ अपनी लड़की का विवाह कर उससे सहायता की माँग की। इस पर कुतुबुद्दीन मेवाड़ पर आक्रमण के लिए रवाना हुआ। सिरोही के देवड़ा शासक की प्रार्थना पर उसने अपने सेनापति मलिक शहवान को आबू विजय के लिए भेजा और स्वयं कुम्भलगढ़ की तरफ चला। इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार राणी से धन मिलने के बाद सुल्तान गुजरात लौट आया। इसी समय कुतुबुद्दीन के सामने महमूद खिलजी के प्रतिनिधि ताज खाँ ने मेवाड़ पर गुजरात – मालवा के संयुक्त आक्रमण की योजना रखी जिसके अनुसार मेवाड़ के दक्षिण भाग पर गुजरात और मेवाड़ के खास भाग वे अहीरवाड़ा पर मालवा का अधिकार होना था।

1456 ई. में चम्पानेर नामक स्थान पर हुई इस आशय की सन्धि के बाद कुतुबुद्दीन आबू पर अधिकार कर चित्तौड़ की तरफ बढ़ा, वहीं महमूद खिलजी ने मालवा की तरफ से मेवाड़ पर आक्रमण किया। फरिश्ता के अनुसार कुम्भा ने धन देकर आक्रमणकारियों को विदा किया जबकि कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति और रसिक प्रिया के अनुसार कुम्भा ने दोनों सुल्तानों को पराजित कर दिया। मुस्लिम शासकों पर विजय के कारण कुम्भा ‘हिन्दू सुरत्राण’ (हिन्दू बादशाह) के रूप में प्रसिद्ध हुआ।

महाराणा कुम्भा की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ

कुम्भा एक वीर योद्धा ही नहीं अपितु कलाप्रेमी और विद्यानुरागी शासक भी था। इसकारण उसे ‘युद्ध में स्थिर बुद्धि’ कहा गया है। एक लिंग के माहात्म्य के अनुसार वह वेद, स्मृति, मीमांसा, उपनिषद्, व्याकरण, राजनीति और साहित्य में बड़ा निपुण था। महान संगीत ज्ञाता होने के कारण उसे ‘अभिनव भरताचार्य’ तथा ‘वीणावादन प्रवीणेन’ कहा जाता है। कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति के अनुसार वह वीणा बजाने में निपुण था। संगीत राज, संगीत मीमांसा, संगीत क्रम दीपिका व सूड प्रबन्ध उसके द्वारा लिखे प्रमुख ग्रन्थ हैं।

‘संगीतराज’ के पाँच भाग – पाठ रत्नकोश, गीत रत्न कोश, वाद्यरत्नकोश, नृत्य रत्न कोश और रस रत्न कोश हैं। उसने चण्डीगढ़ की व्याख्या, जयदेव के संगीत ग्रन्थ गीत गोविन्द और शारंगदेव के संगीत रत्नाकर की टीकाएँ भी लिखी। कुम्भ ने महाराष्ट्री (मराठी), कर्णाटी (कन्नड़) तथा मेवाड़ी भाषा में चार नाटकों की रचना की। उसने कीर्ति स्तम्भों के विषय पर एक ग्रन्थ रचना और उसको शिलाओं पर खुदवाकर विजय स्तम्भ पर लगवाया जिसके अनुसार उसने जय और अपराजित के मतों को देखकर इस ग्रन्थ की रचना की थी। उसका ‘कामराज रतिसार’ नामक ग्रन्थ सात अंगों में विभक्त है।

कुम्भा को ‘राणौ रासो’ (विद्वानों का संरक्षक) कहा गया है। उसके दरबार में ‘एकलिंग महात्म्य’ का लेखक कान्ह व्यास तथा प्रसिद्ध वास्तुशास्त्री ‘मण्डन’ रहते थे। मण्डन ने देवमूर्ति प्रकरण (रूपावतार), प्रासाद मण्डन, राजवल्लभ (भूपतिवल्लभ), रूपमण्डन, वास्तुमण्डन, वास्तुशास्त्र और वास्तुकार नामक वास्तु ग्रन्थ लिखे। मण्डन के भाई नाथा ने वास्तुमंजरी और पुत्र गोविन्द ने उद्दारधोरिणी, कलानिधि’ देवालयों के शिखर विधान पर केन्द्रित है जिसे शिखर रचना व शिखर के अंग – उपांगों के सम्बन्ध में कदाचित् एकमात्र स्वतन्त्र ग्रन्थ कहा जा सकता है। आयुर्वेदज्ञ के रूप में गोविन्द की रचना ‘सार समुच्चय’ में विभिन्न व्याधियों के निदान व उपचार की विधियाँ दी गई हैं। कुम्भा की पुत्री रमाबाई को ‘वागीश्वरी’ कहा गया है, वह भी अपने संगीत प्रेम के कारण प्रसिद्ध रही।

कवि ‘मेहा’ महाराणा कुम्भा के समय का एक प्रतिष्ठित रचनाकार था। उसकी रचनाओं में ‘तीर्थमाला’ प्रसिद्ध है। जिसमें 120 तीर्थों का वर्णन है। मेहा कुम्भा के समय के दो सबसे महत्वपूर्ण निर्माण कार्यों कुम्भलगढ़ और रणकपुर जैन मन्दिर के समय उपस्थित था। उसने बताया है कि हनुमान की जो मूर्तियाँ सोजत और नागौर से लाई गई थी, उन्हें कुम्भलगढ़ और रणकपुर में स्थापित किया गया। रणकपुर जैन मन्दिर के प्रतिष्ठा समारोह में भी मेहा स्वयं उपस्थित हुआ था। हीरानन्द मुनि को कुम्भा अपना गुरु मानते थे और उन्हें ‘कविराज’ की उपाधि दी।

कविराज श्यामलदास की रचना ‘वीर विनोद’ के अनुसार मेवाड़ के कुल 84 दुर्गों में से अकेले महाराणा कुम्भा ने 32 दुर्गों का निर्माण करवाया। अपने राज्य की पश्चिमी सीमा के तंग रास्तों को सुरक्षित रखने के लिए नाकाबन्दी की और सिरोही के निकट बसन्ती का दुर्ग बनवाया। मेरों के प्रभाव रोकने के लिए मचान के दुर्ग का निर्माण करवाया। केन्द्रीय शक्ति को पश्चिमी क्षेत्र में अधिक शक्तिशाली बनाने व सीमान्त भागों को सैनिक सहायता पहुँचाने के लिए 1452 ई. में परमारों के प्राचीन दुर्ग के अवशेषों पर अचलगढ़ का पुनर्निर्माण करवाया। कुम्भा द्वारा निर्मित कुम्भलगढ़ दुर्ग का परकोटा 36 किलोमीटर लम्बा है जो चीन की दीवार के बाद विश्व की सबे लम्बी दीवार मानी जाती है। रणकपुर (पाली) का प्रसिद्ध जैन मन्दिर महाराणा कुम्भा के समय में ही धारणकशाह द्वारा बनवाया गया था।

कुम्भा को अपने अन्तिम दिनों में उन्माद का रोग हो गया था और वह अपना अधिकांश समय कुम्भलगढ़ दुर्ग में ही बिताता था। यहीं पर उसके सत्तालोलुप पुत्र उदा ने 1468 ई. में उसकी हत्या कर दी। कुम्भलगढ़ शिलालेख में उसे धर्म और पवित्रता का ‘अवतार’ तथा दानी राजा भोज व कर्ण से बढ़कर बताया गया है। वह निष्ठावान वैष्णव था और यशस्वी गुप्त सम्राटों के समान स्वयं को ‘परम भागवत’ कहा करता था। उसने ‘आदिवाराह’ की उपाधि भी अंगीकार की थी-‘वसन्धुररोद्धरणादिवराहेण’ विष्णु के प्राथमिक अवतार ‘वाराह’ के समान वैदिक व्यवस्था का पुनस्र्थापक था।

1. विजय स्तम्भ:

चित्तौड़ दुर्ग के भीतर स्थित नौ मंजिले और 122 फीट ऊँचे विजय स्तम्भ का निर्माण महाराणा कुम्भा ने मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी पर विजय की स्मृति में करवाया। इसका निर्माण प्रधान शिल्पी ‘जैता’ व उसके तीन पुत्रों – नापा, पोमा और पूंजा की देखरेख में हुआ। अनेक हिन्दू देवी – देवताओं की कलात्मक प्रतिमाएँ उत्कीर्ण होने के कारण विजय स्तम्भ को ‘पौराणिक हिन्दू मूर्तिकला का अनमोल खजाना’ (भारतीय मूर्तिकला का विश्वकोष) कहा जाता है। डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने इसे ‘हिन्दू देवी – देवताओं से सजाया हुआ एक व्यवस्थित संग्रहालय’ तथा गौरीशंकर हीरा चन्द ओझा ने ‘पौराणिक देवताओं के अमूल्य कोष’ की संज्ञा दी है।

मुख्य द्वार पर भगवान विष्णु की प्रतिमा होने के कारण विजय स्तम्भ को ‘विष्णुध्वज’ भी कहा जाता है। महाराजा स्वरूप सिंह (1442 – 61 ई.) के काल में इसका पुनर्निर्माण करवाया गया। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान विजय स्तम्भ ने क्रान्तिकारियों के लिए प्रेरणा स्रोत का कार्य किया। प्रसिद्ध क्रान्तिकारी संगठन अभिनव भारत समिति के संविधान के अनुसार प्रत्येक नए सदस्य को मुक्ति संग्राम से जुड़ने के लिए विजय स्तम्भ के नीचे शपथ लेनी पड़ती थी।

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