महाराणा प्रताप का जीवन व राज्यारोहण-महाराणा प्रताप का जन्म वि. सं. 1597, ज्येष्ठ शुक्ला तृतीय (9 मई, 1540 ई.) को कुम्भलगढ़ दुर्ग में हुआ। वे मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह के ज्येष्ठ पुत्र थे तथा उनकी माँ का नाम जैवन्ताबाई (जीवन्त कंवर या जयवन्ती बाई) था किन्तु उदय सिंह की एक अन्य रानी धीर कंवर थी। धीर कंवर अपने पुत्र जगमाल को मेवाड़ की गद्दी पर बैठाने के लिए उदयसिंह को राजी करने में सफल रही। उदय सिंह की मृत्यु के बाद जगमाल ने स्वयं को मेवाड़ का महाराजा घोषित कर दिया किन्तु सामन्तों ने प्रताप का समर्थन करते हुए उसे मेवाड़ के सिंहासन पर बैठा दिया। इस प्रकार होली के त्यौहार के दिन 28 फरवरी, 1572 ई. को गोगुंदा में महाराणा प्रताप का राजतिलक हुआ।
महाराणा प्रताप के राज्यारोहण के समय मेवाड़ की स्थितियाँ काफी खराब थी। मुगलों के साथ चलने वाले दीर्घकालीन युद्धों के कारण मेवाड़ की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो चुकी थी। चित्तौड़ सहित मेवाड़ के अधिकांश भागों पर मुगलों का अधिकार हो चुका था और अकबरे मेवाड़ के बचे हुए क्षेत्र पर भी अपना अधिकार करना चाहता था।
इस समय के चित्तौड़ के विध्वंस और उसकी दीन दशा को देखकर कवियों ने उसे ‘आभूषण रहित विधवा स्त्री’ की उपमा तक दे दी थी। शासक बनने पर प्रताप ने आमेर, बीकानेर, जैसलमेर जैसी रियासतों की तरफ अकबर की अधीनता स्वीकार न कर मातृभूमि की स्वाधीनता को महत्व दिया और अपने वंश की प्रतिष्ठा के अनुकूल संघर्ष का मार्ग चुना। मेवाड़ पर मुगलों के आक्रमणों से प्रताप के अन्य सामन्तों के साहस में कमी आने लगी।
ऐसी स्थिति में प्रताप ने सब सामन्तों को एकत्रित कर उनके सामने रघुकुल की मर्यादा की रक्षा करने और मेवाड़ को पूर्ण स्वतन्त्र करने का विश्वास दिलाया और प्रतिज्ञा की कि जब तक मेवाड़ को स्वतन्त्र नहीं करा लँगा तब तक राजमहलों में नहीं रहूँगा, पलंग पर नहीं सोऊँगा और पंचधातु (सोना, चाँदी, ताँबा और पीतल, काँसी) के बर्तनों में भोजन नहीं करूंगा। आत्मविश्वास के साथ मेवाड़ के स्वामिभक्त सरदारों तथा भीलों की सहायता से शक्तिशाली सेना का संगठन किया ओर मुगलों से अधिक दूर रहकर युद्ध का प्रबन्ध करने के लिए अपनी राजधानी गोगुंदा से कुम्भलगढ़ स्थानान्तरित की।
अकबर को प्रताप द्वारा मेवाड़ राज्य में उसकी सत्ता के विरुद्ध किए जा रहे प्रयत्नों की जानकारी मिलने लगी। अतः अकबर ने पहल करते हुए प्रताप के राज्यारोहण के वर्ष से ही उसे अधीनता स्वीकार करवाने के लिए एक के बाद एक चार दूत भेजे। महाराणा प्रताप के सिंहासन पर बैठने के छः माह बाद सितम्बर, 1572 ई. में अकबर ने अपने अत्यन्त चतुर वाक्पटु दरबारी जलाल खाँ कोरची के साथ सन्धि – प्रस्ताव भेजा। अगले वर्ष अकबर ने प्रताप को अपने अधीन करने के लिए क्रमशः तीन अन्य दरबारी – मान सिंह, भगवन्तदास और टोडरमल भेजे किन्तु प्रताप किसी भी कीमत पर अकबर की अधीनता स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुआ।
हल्दीघाटी का युद्ध:
मेवाड़ पर आक्रमण की योजना को कार्य रूप में परिणत करने के लिए मार्च, 1576 ई. में अकबर स्वयं अजमेर जा पहुँचा। वहीं पर मानसिंह को मेवाड़ के विरुद्ध भेजी जाने वाली सेना का सेनानायक घोषित किया। 13 अप्रैल, 1576 ई. को मानसिंह सेना लेकर मेवाड़ विजय के लिए चल पड़ा। दो माह माण्डलगढ़ में रहने के बाद अपने सैन्य बल में वृद्धि कर मानसिंह खमनौर गाँव के पास आ पहुँचा। इस समय मानसिंह के साथ गाजी खाँ व बख्शी, ख्वाजा गयासुद्दीन अली, आसिफ खाँ, जगन्नाथ कछवाह, सैय्यद राजू मिहत्तर खाँ, भगवतदास का भाई माधोसिंह, मुजाहिद बेग आदि सरदार उपस्थित थे।
मुगल इतिहास में यह पहला अवसर था जब किसी हिन्दू को इतनी बड़ी सेना का सेनापति बनाकर भेजा गया था। मानसिंह को मुगल सेना का प्रधान सेनापति बनाये जाने से मुस्लिम दरबारियों में नाराजगी फैल गई। बदायूँनी ने अपने संरक्षक नकीब खाँ से भी इस युद्ध में चलने के लिए कहा तो उसने उत्तर दिया कि “यदि इस सेना का सेनापति एक हिन्दू न होता, तो मैं पहला व्यक्ति होता जो इस युद्ध में शामिल होता।”
ग्वालियर के राजा रामशाह और पुराने अनुभवी योद्धाओं ने राय दी कि मुगल सेना के अधिकांश सैनिकों को पर्वतीय भाग में लड़ने का अनुभव नहीं है। अत: उनको पहाड़ी भाग में घेरकर नष्ट कर देना चाहिए। किन्तु युवा वर्ग ने इस राय को चुनौती देते हुए इस बात पर जोर दिया कि मेवाड़े के बहादुरों को पहाड़ी भाग से बाहर निकलकर शत्रु सेना को खुले मैदान में पराजित करना चाहिए। अन्त में मानसिंह ने बनास नदी के किनारे मोलेला में अपना शिविर स्थापित किया तथा प्रताप ने मानसिंह से छः मील दूर लोसिंग गाँव में पड़ाव डाला।
मुगल सेना में टहरावल (सेना का सबसे आगे वाला भाग) का नेतृत्व सैय्यद हाशिम कर रहा था। उसके साथ मुहम्मद बादख्शी रफी, राजा जगन्नाथ और आसफ खाँ थे। प्रताप की सेना के दो भाग थे, प्रताप की सेना के हरावल में हकीम खाँ सूरी, अपने पुत्रों सहित ग्वालियर का रामशाह, पुरोहित गोपीनाथ, शंकरदास, चारणजैसा, पुरोहित जगन्नाथ, सलूम्बर का चूड़ावत कृष्णदास, सरदारगढ़ का भीमसिंह, देवगढ़ को रावत सांगा, जयमल मेड़तिया का पुत्र रामदास आदि शामिल थे। दूसरे भाग का नेतृत्व सेना के केन्द्र में रहकर स्वयं महाराणा कर रहे थे जिनके साथ भामाशाह व उनका भाई ताराचन्द था।
18 जून, 1576 ई. को प्रात:काल प्रताप ने लोसिंग से हल्दीघाटी में गोगुन्दा की ओर बढ़ती सेना का सामना करने का निश्चय कर कूच किया। युद्ध के प्रथम भाग में मुगल सेना का बल तोड़ने के लिए राणा ने अपने हाथी लूना को आगे बढ़ाया जिसका मुकाबला मुगल हाथी गजमुख (गजमुक्ता) ने किया। गजमुख घायल होकर भागने ही वाला था कि लूना का महावत तीर लगने से घायल हो गया और लूना लौट पड़ा। इस पर महाराणा के विख्यात हाथी रामप्रसाद को मैदान में उतारना पड़ा।
युद्ध का प्रारम्भ प्रताप की हरावल सेना के भीषण आक्रमण से हुआ। मेवाड़ के सैनिकों ने अपने तेज हमले और वीरतापूर्ण युद्ध-कौशल द्वारा मुगल पक्ष की अग्रिम पंकित व बायें पाश्र्व को छिन्न-भिन्न कर दिया। बदायूँनी के अनुसार इस हमले से घबराकर मुगल सेना लूणकरण के नेतृत्व में भेड़ों की झुण्ड की तरफ भाग निकली। इस समय जब प्रताप के राजपूत सैनिकों और मुगल सेना के राजपूत सैनिकों के मध्ये फर्क करना कठिन हो गया तो बदायूँनी ने यह बात मुगल सेना के दूसरे सेनापति आसफ खाँ से पूछी।
आसफ खाँ ने कहा कि, “तुम तो तीर चलाते जाओ। राजपूत किसी भी ओर का मारा जाये, इससे इस्लाम का तो लाभ ही होगा।” मानसिंह को मुगल सेना का सेनापति बनाने का बदायूँनी भी विरोधी था, किन्तु जब उसने मानसिंह को प्रताप के विरुद्ध बड़ी वीरता और चातुर्य से लड़ते देखा तो प्रसन्न हो गया। युद्ध के दौरान सैय्यद हाशिम घोड़े से गिर गया और आसफ खाँ ने पीछे हटकर मुगल सेना के मध्य भाग में जाकर शरण ली। जगन्नाथ कछवाहा भी मारा जाता किन्तु उसकी सहायता के लिए चन्दावल (सेना में सबसे पीछे की पंक्ति) से सैन्य टुकड़ी लेकर माधोसिंह कछवाहा आ गया।
मुगल सेना के चन्दाबल में मिहतर खाँ के नेतृत्व में आपातस्थिति के लिए सुरक्षित सैनिक टुकड़ी रखी गई थी। अपनी सेना को भागते देख मिहतर खाँ आगे की ओर चिल्लाता हुआ आया कि “बादशाह सलामत एक बड़ी सेना के साथ स्वयं आ रहे हैं। इसके बाद स्थिति बदल गई और भागती हुई मुगल सेना नये उत्साह और जोश के साथ लौट पड़ी। राणा प्रताप अपने प्रसिद्ध घोड़े चेतक पर सवार होकर लड़ रहा था और मानसिंह ‘मरदाना’ नामक हाथी पर सवार था। रण छोड़ भट्ट कृत संस्कृत ग्रन्थ ‘अमरकाव्य’ में वर्णन है कि प्रताप ने बड़े वेग के साथ चेतक के अगले पैरों को मानसिंह के हाथी के मस्तक पर टिका दिया और अपने भाले से.मानसिंह पर वार किया।
मानसिंह ने हौदे में नीचे झुककर अपने को बचा लिया किन्तु उसका महावंत मारा गया। इस हमले में मानसिंह के हाथी की सँड़ पर लगी तलवार से चेतक का एक अगला पैर कट गया। प्रताप को संकट में देखकर बड़ी सादड़ी के झाला बीदा ने राजकीय छत्र स्वयं धारण कर युद्ध जारी रखा और प्रताप ने युद्ध को पहाड़ों की ओर मोड़ लिया। हल्दी घाटी से कुछ दूर बलीचा नामक स्थान पर घायल चेतक की मृत्यु हो गई, जहाँ उसका चबूतरा आज भी बना हुआ है। हल्दी घाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से हकीम खाँ सूरी, झाला बीदा, मानसिंह सोनगरा, जयमल मेड़तिया का पुत्र रामदास, रामशाह और उसके तीन पुत्र (शालिवाहन, भवानी सिंह व प्रताप सिंह) वीरता का प्रदर्शन करते हुए मारे गए। सलूम्बर का रावत कृष्णदास चूड़ावत, घाड़ेराव का गोपालदास, भामाशाह, ताराचन्द्र आदि रणक्षेत्र में बचने वाले प्रमुख सरदार थे।
जब युद्ध पूर्ण गति पर था, तब प्रताप ने युद्ध स्थिति में परिवर्तन किया। युद्ध को पहाड़ी की ओर मोड़ दिया। मानसिंह ने मेवाड़ी सेना का पीछा नहीं किया।
मुगलों द्वारा प्रताप की सेना का पीछा न करने के बदायूँनी ने तीन कारण बताये हैं-
1. जून माह की झुलसाने वाली तेज धूप।
2. मुगल सेना की अत्यधिक थकान से युद्ध करने की क्षमता ने रहना
3. मुगलों को भय था कि प्रताप पहाड़ों में घात लगाए हुए हैं और उसके अचानक आक्रमण से अत्यधिक सैनिकों का जीवन खतरे में पड़ जाएगा।
इस तरह अकबर की इच्छानुसार वह न तो प्रताप को पकड़ सका अथवा मार सका और न ही मेवाड़ की सैन्य-शक्ति का विनाश कर सका। अकबर का यह सैन्य अभियान असफल रहा तथा पासा महाराणा प्रताप के पक्ष में था। युद्ध के परिणाम से खिन्न अकबर ने मानसिंह और आसफ खाँ की कुछ दिनों के लिए ड्योढ़ी बन्द कर दी अर्थात् उनको दरबार में सम्मिलित होने से वंचित कर दिया।
शहंशाह अकबर की विशाल साधन सम्पन्न सेना का गर्व मेवाड़ी सेना ने ध्वस्त कर दिया। जब राजस्थान के राजाओं में मुगलों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर उनकी अधीनता मानने की होड़ मची हुई थी, उस समय प्रताप द्वारा स्वतन्त्रता का मार्ग चुनना नि:सन्देह सराहनीय कदम था।