गाँधीजी के विचारों की यह विशेषता है कि इसमें साध्य और साधन में कोई भिन्नता नहीं है। वह कहा करते थे- “मेरे जीवन दर्शन में साधन और साध्य संपरिवर्तनीय शब्द है।” न केवल साध्य ही नैतिक, पवित्र शुद्ध व उच्च होने चाहिये बल्कि साधन भी उसी मात्रा में नैतिक, पवित्र व शुद्ध होने चाहिये। वह दोनों को अविभाज्य समझते थे।
उनके लिये साधन एक बीज की तरह है और साध्य एक पेड़। साधन और साध्य में वही सम्बन्ध है जो बीज और पेड़ में है। गाँधीजी ने राजनीतिक स्वतन्त्रता की लड़ाई में अपवित्र (हिंसक) साधनों का समर्थन नहीं किया। साधन व साध्य दोनों की पवित्रता पर बल देकर गाँधीजी ने राजनीति में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन ला दिया।